....हाशिये से.

कुछ मोती... कुछ शीप..!!!



Monday, October 26, 2015



बेटी !


तीन दृश्य :




1.
बेटी !
जिण घर 
जळमें  नहीं 
फूट्या उणरा 
भाग .
बेटा
दे गोडा
जणा
रौवे 
माँ अर  बाप !



.
2.
बिन बेटी 
घर नईं ,
मिनखी चारो 
भी 
बेकार .
बेटा 
भख लेवे
 जणा 
माचे
हाहाकार !









3.
बूढी काया ...
जद हाँफसी,
हिम्मत
बेटी साथ.
देसी 
वा
ढाढ़स घणों,
रक्ख...
माथा 
माथै हाथ !
बेटी ...
भळ
परायी घणी,
पण 
मुश्कल मं
वा साथ !
-श्रीपाल शक्तावत



Friday, October 9, 2015

दादरी :
दो दृश्य !!!


-एक-

बीगोद से
बाबरी तक ,
और बाबरी से
दादरी तक ..
हम बढे ,
मगर
इस तरह..
कि ,
गिरते चले गए !
सियासत के
घेरों में,
चंद वोटों के
फेरों में ,
घिरते चले गए !!













-दो -


चुभती थी
नेताओं को
कुछ यूँ  .....
चरण सिंह
की वो विरासत !
जाट
वहां पाते थे
सत्ता ......
मुस्लिम
रचते
इक सियासत !

जीत लिखी
जयंत अजीत ने ,
जिन वोटों
के बूते पर !
आज वो वोट
बंटे पड़े हैं ,
मजहब की
इक खूँटी पर !
सत्ता
अजीत का,
अतीत हो गयी !
देखो
दंगाईयों की,
जीत हो गयी !
जीत
मुज्जफरपुर
आगे बढे तो,
यूपी में भी
प्रीत खो गयी !
दादरी
दंगों का ,
नया प्रयोग है !
मजहब
जाति ,
सत्ता उद्योग है !
बीफ
बहाना
भर है यारों
मकसद सत्ता
है हथियाना  ...
पहले
जाट मुसलमां
भिड़े धर्म पर ....
अब क्षत्रियों को
भड़काना है !

वोट
काट कर
जाति धर्म से
मकसद,
सत्ता हथियाना है !
जिन्दा होकर
मरे पड़े जो
उनको,
बस भड़काना है !
वोट
काट कर
जाति धर्म से
मकसद,
सत्ता हथियाना है !

-श्रीपाल शक्तावत 




Sunday, August 16, 2015

... बड़े हो गए !








... बड़े हो गए !



बुत बनकर ,
हम खड़े हो गए ...
दुनिया कहती ,
तुम बड़े हो गए...
भक्ति अंधी,
ऐसी है अब ..
सच भी
मुर्दे गड़े हो गए ...

फेंकें चाहें ,
लंबी चौड़ी ....
सच्चाई के ,
धड़े हो गए ..
बुत बनकर ,
हम खड़े हो गए ...
दुनिया कहती ,
तुम बड़े हो गए ..

वोट फंसे,
दाढ़ी -चोटी में...
सोच- सियासत,
सड़े हो गए ...
हुकूमत उनकी,
हुकुम भी उनका...
कौमी करतब
कड़े हो गए ..
बुत बनकर
हम खड़े हो गए
दुनिया कहती,
तुम बड़े हो गए !

-श्रीपाल शक्तावत 




Monday, August 3, 2015






" हिम्मत" को दाद दीजिये  !


बीस साल के आसपास ही उम्र रही होगी उस युवक की . बिना बताये वह नसीराबाद के बलवंता गांव से चुपचाप पहले बस से अजमेर के लिये निकला फिर अजमेर से मायानगरी मुम्बई के सफर पर . रेल के जरिये वह एक ऐसी मंजिल की तरफ बढ गया था जिसे हासिल करना नामुमकिन सा था. मुंबई में बडा भाई नौसेना में था सो वहां रहने के ठिकाने की उसे कोई चिन्ता नहीं थी. चिन्ता थी तो सिर्फ इस बात की कि उसके मुंबई पहुंचने के मकसद की जानकारी के बाद भाई का बर्ता्व कैसा होगा और फौजी पिता उसे इस करतब के लिये माफ करेंगे भी या नहीं .
यह युवक था इन दिनों अपनी फिल्म "भाग्य" के लिये फिल्म फेस्टिवल्स में अवार्ड और सुर्खियां बटोर रहा हिम्मत शेखावत . देश के नामी गिरामी फैशन फोटोग्राफरर्स में शुमार हिम्मत की इस   फिल्म की कहानी भी राजस्थान के दूर दराज के गांवों की असलियत के इर्द गिर्द ही है . और, फिल्म के हीरो बने एक छात्र का संघर्ष भी कमोबेश फिल्म के निर्माता निर्देशक हिम्मत शेखावत की ही तरह है .
दरअसल, अपनी मंजिल के करीब पहुंचे हिम्मत शेखावत की हिम्मत को दाद इसलिये दी जानी जरूरी है . क्योंकि,हिम्मत ने हिम्मत नहीं हारी और अपने सपनों का पीछा करता हुआ इस मुकाम तक पहुंच गया . मुंबई की डगर पर निकला तो न उसके पास मायानगरी को करीब से देखने का जरिया ​था और न ही उसके लिये जरूरी तालीम . लेकिन सपनों का पीछा करते हुये इस नौजवान ने फिल्मी दुनिया को करीब से देखने की तरकीब निकाल ही ली . यह तरकीब थी सिक्युरिटी गार्ड के बतौर नौकरी की . हिम्मत न पहले सिक्यूरिटी सर्विस में नौकरी का जुगाड किया फिर फिल्म स्टूडियो में रात दिन की डयूटी का . 
कोई भी व्यक्ति रात दिन डयूटी नहीं कर सकता लेकिन हिम्मत ने दूसरे गार्ड की जगह भी डयूटी खुद ही देने का फैसला कर राह निकाल ली . तनख्वाह वह गार्ड लेता और डयूटी हिम्मत निभाता. ज्योंहि मौका मिलता वह स्टूडियो में लगे सैट और कैमरों की तरफ पांव बढा देता . कई बार इसके लिये झिडकियां ​भी मिली और सैट पर मौजूद बाउंसर्स के धक्के भी . लेकिन स्टूडियो के सुरक्षा प्रहरी होने के नाते हर बार बचाव हो ही जाता . दरवाजे पर तैनाती की बजाय  हिम्मत को स्टूडियो के भीतर झांकता देख किसी और ने उसे नोटिस किया न किया ,अक्सर मुंबई महालक्ष्मी में  स्टूडियो प्लस में विज्ञापन शूट करने आये जाने माने फोटोग्राफर तेजल पटनी  ने उससे वजह जरूर पूछ ली .
फिल्मी दुनियां का यह जुनून उस फोटोग्राफर तेजल पटनी के लिये कुछ अलग था सो बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया . हिम्मत ने तेजल पटनी को ज्वाइन किया तब सिर्फ और सिर्फ चपरासी के रूप में. लेकिन, फिर यह रिश्ता गुरू शिष्य के रूप में बदल गया. अब हिम्मत मुंबई के फिल्म स्टूडियो में सिक्यूरिटी गार्ड के रूप में नहीं एक जूनियर फिर सीनियर फोटोग्राफर के रूप में दाखिल होने लगा था .
कयामत से कयामत तक और कभी खुशी कभी गम जैसी फिल्मों के सिनेमेटोग्राफर किरण देवंश की एक सीख हिम्म्त के लिये घुप्प अंधेरे में सूरज सरीखी रोशनी साबित हुई . देवंश ने संघर्ष करने निकले हिम्मत की लगन को देख सीख दी थी कि वह फिल्म से जुडे तो सिर्फ और सिर्फ तकनीक के जरिये .वरना मुंबई में अभिनय का सपना लेकर आने वालों के सपने मुंबई लोकल में ही दम तोड देने की कहानियां कई है .देवंश की सीख इतनी कारगर हुई कि तेजल पटनी ने हिम्मत के कंधे पर हाथ रखा तो तेजल से लेकर प्रसाद नायक और राज मिस्त्री तक हर फोटोग्राफर के साथ हिम्मत ने कंधे से कंधा मिला संघर्ष को आगे बढा लिया . रामगोपाल वर्मा की फिल्म भूत में स्टिल फोटोग्राफर का काम मिला हो चाहे देवानंद के साथ लव एट टाईमस्क्वायर के स्टिल फोटोग्राफर या सुभाष घई की फिल्म परदेस के स्क्रीन प्ले डायरेक्टर नीरज पाठक की फिल्म के स्टिल फोटोग्राफर का . हिम्मत हर जगह एक प्रशिक्षु के बतौर ही नित नये प्रयोग करते रहे .

हिम्मत को पता था कि फिल्म में जितना बडा रोल अदाकारी या निर्देशन का है ,उससे बडी भूमिका साउण्ड लाईटस और कैमरे की है . लिहाजा, कैमरे का जादू समझने और जादूगर बनकर कुछ नया करने का जुनून हिम्मत के सिर पर भूत की तरह सवार हो गया था .और एक बार हिम्मत के कैमरे में कैद फोटोग्राफस फिल्मी दुनियां के दिग्गजों की निगाह में आये तो फिर असाईनमेंटस की कोई कमी नहीं रही .हिम्मत के कैमरे में कैद प्रोफाइल फिल्मी पोस्टर्स पर तो छाये ही ,कई नामी गिरामी पब्लिेकेशंस से  भी हिम्मत को स्पेशल सूट के प्रस्ताव मिलने लगे .
 चार साल के शुरूआती संघर्ष के बाद हिम्मत की फोटोग्राफी पर जाने माने फिल्मकार प्रकाश मेहरा की निगाह पडी तो लगा मुकाम मिल गया . लेकिन महज सात महीने में ही मन उचाट हो गया और हिम्मत फिर कुछ नया करने की चाह में कैमरा थामे निकल पडे.इस बीच अजमेर जिले के ही सिंगावल गांव की उषा राठौड हिम्मत की हमसफर बनी तो कला कविता और साहित्य के जरिये उषा के जेहन में समायी क्रियेटिविटी हिम्मत की फैशन फोटोग्राफी में एक नयी ताकत बन गयी .
सदाबहार देवानंद से लेकर राजकुमार हीरानी और रामगोपाल वर्मा तक न जाने कितनी फिल्मी और शोभा डे, प्रसून जोशी जैसी कई साहित्यिक हस्तियों को अपने कैमरे में कैद कर चुके "बलवंता के इस बालक" ने पल्सर, रूपा, थर्माकोट, जॉय, टाटा नैनो ,रिलायंस डिजीटल, बिसलरी ,गैस आॅ फास्ट, न्यूयॉर्क सिग्नेचर, रीबॉक, निओ क्रिकेट और आॅनिडा जैसे कई उत्पादों के लिये भी अपने कैमरे का जौहर दिखाया . लेकिन थोडा  सुकून तब मिला जब उषा की कहानी पर खुद की फिल्म बनाने का सपना आकार लेकर फिल्म "भाग्य" के जरिये फिल्म फेस्टिवल्स में नजर आया . बकौल हिम्मत "भाग्य उस सपने की शुरूआत भर है जिस सपने के लिये उसने मुंबई की राह पकडी थी ."



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Sunday, July 26, 2015

है  जूनून !

स्थान -आगरा का पांच सितारा होटल . 
समय - दिन के 2 बजे .
अवसर -लिंग अनुपात और कन्या भ्रूण हत्या पर एक सेमिनार . 

सात साल पहले का वह दिन आज सुबह एक खबर पढने के साथ ही फ़िल्मी दृश्य की तरह आँखों की तरह आ गया .  छरहरे बदन का एक जवान लिंग जांच के खिलाफ छेड़े गए अपने अभियान के बारे में जानकारी दे रहा था . और ... मैं अलसायी आँखों और उबासियों के बीच इस जवान की बातें सुने जा रहा था . अनुभव दिलचस्प थे सो उन्हें सुनने का मोह चाह कर भी  नहीं छोड़ पा रहा था . लेकिन मुझ जैसे ग़ुरबत से गुजरे ग्रामीण परिवेश के किसी व्यक्ति को भरपेट भोजन के बाद बढ़िया वातानुकूलित माहौल मिले तो नींद से पीछा छुड़ाना भी असंभव सा था . अनुभव सुनाने के बाद इस जवान से रूबरू हुआ तो पता चला यह सख्श कोई और नहीं 2003 बैच के  भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी  नीरज के पवन हैं और भरतपुर में प्रोबेशन के दौरान  की पोस्टिंग पर हैं .
क्लिनिकल साइकोलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएट नीरज के पवन उस वक्त भरतपुर में उप खंड अधिकारी के रूप में कार्यरत थे और जिले में सोनोग्राफी सेंटर्स की ऑडिट कर लिंग जांच के खिलाफ अभियान को आगे बढ़ा रहे थे . उनके अनुभवों को सुन यह यकीन करना मुश्किल था कि कोई आई ए एस इस स्टार पर सक्रिय हो, इस समस्या के खिलाफ अभियान की अगुवाई करे .यह भरोसा इसलिए भी मुश्किल था क्योंकि 2005 - 2006 में कन्या भ्रूण हत्या और लिंग जांच के खिलाफ स्टिंग के दौरान हम भरतपुर और आगरा के डाक्टरों के नेक्सस को भी करीब से देख चुके थे और लिंग जांच के खिलाफ बनाये गए कानून के खुल्लमखुल्ला उल्लंघन को भी छिपे हुए कैमरे में कैद कर चुके थे .लेकिन, नीरज के पवन के काम पर  अविश्वास का भी कोई कारण इसलिए नहीं था क्योंकि देश में कोख में बेटियों के क़त्ल और लिंग जांच के खिलाफ कानून लागू करने पर सरकार को मजबूर करने वाले साबू जॉर्ज जैसे सख्श नीरज के अनुभवों को सुन तालियां बजाये जा रहे थे .
 उस वक्त हम  सिस्टम का एक अलग ही रूप देख रहे थे और अदालतों से लेकर सरकारी गलियारों तक स्टिंग को साबित करने की लड़ाई में खुद को खपाए जा रहे थे . लिहाजा एक आई ए एस के इस तरह के अनुभवों को स्वीकारने को मेरा मन सहसा तैयार नहीं था . लेकिन कुछ सालों के बाद जाने माने कॉमेंटेटर और मेरे प्रेरक मुकुल गोस्वामी के साथ पाली एक कार्यक्रम में  गया तो पता चला वही सख्श मंच से परे बूढ़े बुजुर्गों का आशीर्वाद और स्नेह हासिल कर रहा है . वो भी तब जब कलेक्टर के रूप में अपनी सेवाएं देकर पाली से विदा हो गए  ,लेकिन कन्याओं की बहबूदी के लिए शुरू किये गए बेटी बचाओ अभियान को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने आये हुए थे .
उस मुलाक़ात के बाद नीरज के पवन से कई बार संवाद हुए . और कई कार्यक्रमों  में मंच भी साझा  किये .लेकिन बी बी सी से जुड़े रहे डेविड ब्राऊन ने नीरज के पवन से मुलाक़ात के बाद मुझे उनका रेफरेंस देने के लिए शुक्रिया अदा किया तो लगा मैंने एक सही व्यक्ति को सही व्यक्ति का अता- पता दिया था .

कुछ दिनों पहले - छह सात जुलाई को नीरज के पवन दुर्घटना में घायल एक लड़की के इलाज की खातिर डाक्टरों की झिड़कियां खाने के चक्कर में खबरों का हिस्सा बने थे . और,आज 26 जुलाई को  सड़क दुर्घटना  में एक व्यक्ति की मौत और टक्कर मारने वाले ड्राईवर की गिरफ्तारी से जुडी खबर में नीरज के पवन की मानवता और कर्त्तव्य परायणता को देख सात  साल पुराना  दृश्य   फ़िल्मी रील  की  तरह घूम  गया .  यूँ  तो नीरज बतौर आई ए एस   गुर्जर  आंदोलन  के वक्त भी सरकार और आंदोलनकारियों के बीच सेतु का काम कर चुके हैं . लेकिन संवेदनहीन होते समाज और सरोकारों के बीच उपजते  सेतु का यह जूनून  देख नीरज के पवन को सेल्यूट करने का मन करता है . एक बारगी नीरज को कॉल भी किया लेकिन नंबर आऊट ऑफ़ रीच था , सो सोचा सोशल मीडिया के जरिये ही उन तक पहुंचा जाए .और, बताया जाए कि सेवा से जुडी खबरें पाठकों को कैसे प्रभावित करती हैं .




.....

   

Saturday, July 25, 2015

बीस साल बाद  !

बीस साल का वक्त कम नहीं होता . बीस साल में सब कुछ बदल गया .देश ने नेहरू के समाजवाद से नरसिम्हाराव के उदारवाद से लेकर मोदी के कट्टरवाद तक कई बदलाव देख लिए . इस बीच वाजपेयी का शाइनिंग इण्डिया का नारा भी गूंजा तो मनमोहन का ग्लोबल सोच भी उभर कर बाजार में छा गया . देश बदला , दुनिया बदली . प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया होते हुए सोशल मीडिया तक का सफर भी तय हो गया . लेकिन आज एक ऐसे सख्श से फिर मुलाकात हो गयी ,जिससे अगस्त 1994  में एक चर्चित  समाजवादी  चिंतक मास्टर रामशरण अत्यनुप्रासी की वजह से मुलाकात हुई थी . मैं जयपुर और समाजवाद को समझने के लिए  लोहिया के शिष्य मास्टर रामशरण अत्यनुप्रासी जी के पास अक्सर जाता रहता . अगस्त के ही एक दिन मास्टरजी ने इस सख्श के बारे में कुछ इस तरह जिक्र किया कि उससे मिलने की  इच्छा प्रबल होती चली गयी .ये सख्श कोई और नहीं  ,यह सख्श थे  -डाक्टर सुनील गुप्ता . डाक्टर गुप्ता के बारे में पहला परिचय मास्टरजी ने कुछ इस तरह दिया था . तुम्हें धरती पर शैतान और भगवान एक ही जगह देखने  हो तो जयपुर के जे के लोन  अस्पताल चले जाओ . एक तरफ भगवान के रूप में सुनील गुप्ता होंगे , तो दूसरी और ठीक उनके सामने जो सख्श होंगे वो शैतान होंगे . एक ऐसा शैतान जो नन्हे मुन्ने बच्चों को हाई डोज़ दे रहा होगा . और एक ऐसा भगवान , जो फालतू में बच्चों को दवा न देने की सलाह दे रहा होगा .

बात कुछ इस तरह बताई गयी कि मैं मास्टरजी के घर से सीधे मिनी बस पकड़ कर जे के लोन पहुँच गया . अस्पताल में दोनों डाक्टर आमने सामने थे . डाक्टर सुनील गुप्ता के यहाँ कतार लम्बी लगी थी . किसी को बच्चों को फालतू दवा न देने की हिदायत तो किसी को अपने पास पड़े दवा के सेम्पल . एक बच्चे के पिता के पास तो शायद घर वापिस जाने के किराये का भी संकट था , सो उसने हक़ के साथ डाक्टर गुप्ता को बात बताई और डाक्टर गुप्ता ने जेब से बीस रुपये का नोट निकाल कर उसे  थमा  दिया . ये एक अलग अनुबव था ,जिसमे डाक्टर पर्ची पर बेवजह दवाओं की फेहरिश्त बनाने की बजाय नसीहत दे रहा था ,दवा एक सेम्पल में थमा रहा था और तीमारदार को किराया भी थमा रहा था .
कुछ दिन बाद फिर अस्पताल गया तो नजारा कमोबेश वैसा ही था .
जिज्ञासाएँ हिलौरे मार रही थी , सो बातचीत का सिलसिला चलता चला गया . पता चला पेशे से एलोपैथिक डाक्टर सुनील गुप्ता ने यूनानी और आयुर्वेदिक  दवाओं के सहारे चिकित्सा विज्ञान में असंभव करार दिए गए - मेन्टल रिटार्डेशन यानि मंदबुद्धि का इलाज खोज लिया है . जे ई पार्क और के पार्क लिखित " प्रिवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन" के मुताबिक ऐसे किसी व्यक्ति का शारीरिक विकास तो संभव है लेकिन मानसिक विकास नहीं . आयुर्वेद और यूनान के सम्मिश्रण से ऐसे रोग का इलाज अपने आप में बड़ी खबर थी ,सो मैं उस वक्त की चर्चित हिंदी पाक्षिक "माया"( जहाँ संवाददाता के रूप  में सेवारत रहा ) में रिपोर्ट के सिलसिलिले में सक्रिय हो गया . मैं रिपोर्ट को लेकर उत्साहित था लेकिन हमारे ब्यूरो प्रमुख ओम सैनी जी ऐसी किसी रिपोर्ट को बिना वैज्ञानिक आधार के  प्रकाशित करने के पक्ष में नहीं थे .
मुझे लग रहा था कि यह एक रिपोर्ट कई ऐसे रोगियों को राहत की राह दिखा सकती है . लिहाजा मैं डाक्टर सुनील गुप्ता के सभी दस्तावेजों को एकत्र करने और उनके चिकित्सकीय आधार तैयार करने में जुट गया . इस बीच पाकिस्तान तक के लोग अपने विमंदित बच्चों के इलाज के लिए आने लगे थे .खैर महीने भर की मशक्कत के बाद रिपोर्ट फाइल हुई और 31  अक्टूबर 1994 के अंक में  रिपोर्ट प्रकाशित हो गयी . रिपोर्ट के बाद कई परिजनों ने डाक के जरिये डाक्टर गुप्ता का अता पता लिया और सुधार के बाद धन्यवाद के पत्र भी आने लगे .

डाक्टर सुनील गुप्ता की यश कीर्ति भी फ़ैल रही थी और मरीजों की कतार भी अस्पताल में बढ़ती जा रही थी . सामने बैठने वाले महाशय के लिए इसे पचाना मुश्किल था लिहाजा जातीय गणित और राजनैतिक रसूख के बूते वह खुद अस्पताल में काबिज रहे और डाक्टर गुप्ता को जयपुर से बाहर टोंक जिले के निवाई में स्थानांतरित कर दिया गया . कुछ दिन की मायूसी के बाद  डाक्टर गुप्ता एक बार फिर नए मिशन में जुट गए . वहां आने वाले हर मरीज की मुड़ी हुई हड्डियों और बच्चों के खाएब होते दांत इस सख्श के लिए नए मिशन का जरिया बन गए . दोहरे होते शरीर और वक्त से पहले गिरते या पीले पड़ते दांत को देख यह अंदाज़ सहज था कि वनस्थली और आसपास के इलाकों के पानी में फ्लोराइड की तय सीमा से कई गुना मात्रा इलाके को फ्लोराइड का शिकार बना रही है . गुप्ता ने औने पौने दाम वाले फिल्टर प्लांट तैयार किये और सरकार को इलाके में इन्हे लगाने की गुजारिश कर दी . सरकार में प्रभावी तत्कालीन काबीना मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी को यह खोज पसंद आई और डाक्टर गुप्ता को निवाई से लाकर फ्लोराइड नियंत्रण के काम में भूमिका दे दी गयी . लेकिन सरकारी मशीनरी सस्ते उपाय के पक्ष में नहीं थी ,लिहाजा तरीके से फिर गुप्ता को अलवर जिले से सटे एक कस्बे में स्थानंतरित  कर दिया गया . गुप्ता के लिए यह मनोबल तोड़ने की कोशिश से कम नहीं था ,लिहाजा वो सरकारी नौकरी से अलग हो अपने शोध कार्य में जुट गए . 
एक और शतावरी ,शंख पुष्पी और ब्राह्मी जैसी जड़ी बूटियों से तैयार दवा और यूनानी तेल की मालिश से सेरिब्रल डिस्ट्रॉफी और स्पाइनल मास्कूलर जैसी बीमारियों के इलाज का सिलसिला जारी था ,दूसरी तरफ पेटेंट की लड़ाई भी चल रही थी . पेटेंट के लिए जंग में कुछ बिंदु ऐसे थे ,जिनका खुलासा करना डाक्टर गुप्ता को मंजूर नहीं था लिहाजा लड़ाई चलाती रही . इस बीच देश के कई नामी गिरामी अखबारों ने गुप्ता की इस खोज पर खबरें की तो बड़ी कम्पनियाँ एक मुश्त रकम देकर फार्मूला खरीदने के प्रस्ताव लेकर आने लगी .गुप्ता फार्मूला बेचकर सस्ती दवाओं के महंगे व्यापर के पक्ष में नहीं थे ,लिहाजा बात नहीं बनी .

इस दौरान मुलाकात का यह सिलसिला  व्यस्तताओं के बीच न के बराबर सा हो गया .बीस साल बाद एक बार फिर आज डाक्टर सुनील गुप्ता से लम्बी मुलाकात हुई है .और, इस मुलाकात में एक बार फिर डाक्टर गुप्ता एक नयी खोज का दावा कर रहे हैं .और, यह खोज है साईटिका और डिस्क प्रोलेप्स के उपचार की . यह उपचार आयुर्वेद और एलोपैथ का मिश्रण है . इतना ही नहीं आयुर्वेद के जरिये डाक्टर गुप्ता अल्झाइमर का भी इलाज खोजने में खुद के कामयाब होने का दावा कर रहे हैं . और, उन्हें वैज्ञानिक तौर पर स्थापित कर रहे हैं . गुप्ता के लिखे लेख मेडिकल जनरल्स में स्थान पर रहे हैं और वो उसी शिद्दत के साथ बीस साल बाद अपना धर्म निभा रहे हैं .
इन बीस सालों में उनके सामने बैठने वाला शिशु रोग विशेषज्ञ एक मेडिकल कालेज  समेत एक टी वी चैनल का मालिक बन चूका है ,और खुद गुप्ता एक छोटे से निजी अस्पताल के जरिये सेवा का दरिया बहाये जा रहे हैं . इस बीच धन न सही गुप्ता के खाते में सेंकडों ,हज़ारों लोगों की दुवाएं आई हैं   तो शैतान की तरह महंगी और हाई डोज दवाओं के जरिये धन अर्जित कर कालेज और चैनल के मालिक बने महाशय अपनी ही कालेज की छात्रों के देह शोषण के आरोप पुलिस मुकदमों के कारण विवादों में घिरते जा रहे हैं . गुप्ता के पास अकूत धन सम्पदा नहीं ,लेकिन ढेर सारा सुख चैन है .और कभी उनकी कुर्सी के सामने बैठ कर गुप्ता के मरीजों की कतार में खड़े बच्चों की गिनती करने वाले महाशय के पास अकूत धन दौलत है . कालेज है  , टी वी चैनल है लेकिन सुख -चैन नहीं .
बीस साल में गुप्ता के सिर के बाल जा चुके हैं  . बस बचा है तो जूनून और जज्बा . ठीक वैसा ही जैसा पहले था . इस बीच दवाओं के प्रयोग के खातिर ह्यूमन मॉडल न होने से खुद पर प्रयोग कर गुप्ता ने आँखों की दो बार रोशनी भी गंवाई लेकिन नियति गुप्ता के जरिये  जन कल्याण और चाहती है , लिहाजा रोशनी भी लौटी और प्रयोग का जज्बा भी बढ़ता चला गया . दवाएं किसी भी तरह के साइड इफेक्ट से मुक्त हों और दवाओं के बहाने पुराने विरोधी उन्हें घेरने में कामयाब न हों , इसलिए हर दवा का प्रभाव खुद पर जांचने वाले गुप्ता जैसे होनहार चिकित्सकों को हमारी सरकारी मशीनरी सिस्टम से बाहर जाने पर कैसे मजबूर करती है . ये सवाल तब भी था और अब भी . बीस साल बाद भी जवाब की तलाश जारी है .क्या आपके पास जवाब है  ?



>>..<<

Monday, July 13, 2015





तारीख़  ... !

फिर ,तारीख़ !!



रवाजे पर दस्तक के साथ ही खाकी  वर्दी में आने वाले उस सिपाही के चेहरे पर  भी हंसी के भाव होते हैं और मेरे चेहरे पर भी .वो अदालत का सम्मन थमाता ही है कि एक सवाल उधर घर के भीतर से पत्नी उछाल
देती है .इस बार कहाँ का है ? कब जाना है ? किस डॉक्टर का है ? मैं सवाल का जवाब देता उससे पहले ही इस बार सम्मन लेकर पहुंचे सिपाही ने खुद ही जवाब दे दिया -"कहीं और का नहीं . इस बार जयपुर की ही अदालत में जाना है ."
चमुच बीते सात आठ सालों में अदालत और अदालत से आने वाले सम्मनों से पूरे परिवार का ऐसा रिश्ता सा बन गया है कि कभी मोहल्ले तक में चर्चा का विषय बन जाने वाले सम्मन ज़िन्दगी का हिस्सा सा बन गए हैं .कन्या भ्रूण हत्या पर किये गए स्टिंग में यूँ तो गवाह  और भी हैं ,लेकिन सहारा टीवी नेटवर्क के उस वक़्त वाइस प्रेजीडेंट रहे ,उत्तराखंड के मौजूदा सूचना आयुक्त आदरणीय प्रभात डबराल ने स्टिंग से जुड़े मामलों में अदालत में हर बार पहुँच कानूनी लड़ाई को इस तरह मजबूती दे दी है कि आठ साल बाद भी कन्या भ्रूण हत्या के खुनी खेल के किरदारों को अदालत के सामने खड़ा करने में ज्यादा मुश्किल नहीं लगती .
स बीच कुल चार मामलों में सुनवाई पूरी हुयी है और दो डाक्टरों को सजा .बाकि करीब 79 डाक्टरों के मामले अभी अदालत में लंबित हैं .लिंग जांच और कन्या भ्रूण हत्या से जुड़े सभी मामलों को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत की दिलचस्पी और न्यायपालिका में कन्या भ्रूण हत्या के आँकड़ों से जुडी चिंता के बावजूद एक सच यह भी है कि इन मामलों में सरकार की तरफ से पैरवी करने वाले सरकारी वकीलों और पी सी पी एन डी टी कानून के तहत इन सभी मामलों को अदालत तक ले जाने वाले सी एम एच ओ की मामलों को कानून कि कसौटी पर कसने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं . ऐसे बिरले ही सरकारी नुमाईंदे होंगे ,जो चाहते हों कि डॉक्टर्स को उनकी कुत्सित सोच की कानून सजा मिले .
25 मार्च 2005 को इस स्टिंग की परिकल्पना की तब न तो डाक्टरों के इस तरह कन्या भ्रूण हत्या में शरीक होने ,हर साल साढ़े आठ लाख लड़कियों को माँ की कोख में निर्मम तरीके से मारने और हर साल करीब पांच हज़ार करोड़ रुपये कमाने का अंदाज़ था न ही एक गिरोह की तरह काम करती मशीनरी का .लेकिन स्टिंग के प्रसारण के साथ ही इस गिरोह के हर अंदाज़ ,उनके पीछे खड़े ताकतवर लोगों का पता चला तो लगा लड़ाई मुश्किल ही नहीं ,असंभव होगी .
लेकिन कुछ कुदरत की मांग थी ,कुछ जन आंदोलनों से लेकर फिल्म अभिनेता आमिर खान के "सत्यमेव जयते" से मिले हौसले तक का असर कि लड़ाई अब आसान सी लगती है .और वह भी तब जब स्टिंग को स्थापित करने के दायित्व से कुछ चहरे मुंह छिपा रहे हों और उम्र के इस मोड़ पर प्रभात डबराल जी सेंक्डों किलोमीटर का सफर कर थके हारे अदालत तक आ रहे हों .हालाँकि एक सवाल हर सम्मन के साथ बिन बुलाये मेहमान की  तरह आ ही जाता है कि चार मामलों को अदालत में अंतिम सुनवाई तक ले जाने में अगर आठ साल लग गए तो बाकि बचे 79 डाक्टरों के मामलों को अदालत में कानूनी अंजाम तक पहुँचने में कितना वक्त लगेगा  ? क्या तब हम शारीरिक रूप से ऐसी स्थिति में होंगे        कि अदालत में जाकर उन डाक्टरों के खिलाफ बयान और सबूत दे सकें ,जो बेटियों को माँ की कोख में ही ख़त्म करने के खुनी खेल में शामिल रहे हैं . क्या वह डाक्टर भी शारीरिक रूप से इतने सक्षम होंगे कि अदालत में उनके खिलाफ जारी लड़ाई में खुद का पक्ष रख सकें ?वाल भी  हैं औ सम्मनों के साथ हमारे चेहरे पर मुस्कराहट का प्रभाव  भी   ! शायद ज़िन्दगी के अंतिम मोड़ पर जाते हुए भी हम समाज से ,खासकर डाक्टरों से आग्रह कर सकें कि बेटियों को खुनी पंजों और उनकी लिंग जांच करने वाली तकनीक से बचाईये .                                                                                                                                                                                ...