....हाशिये से.

कुछ मोती... कुछ शीप..!!!



Wednesday, November 17, 2010

ये शहर बहुत हसीं मगर ...!

जयपुर का 283 वां स्थापना दिवस सचमुच में इस छोटी काशी में बसे हर जयपुर वासी के लिए ख़ुशी का विषय है.सिर्फ इसलिए नहीं कि यह इस शहर की साल गिरह है..और इस मौके पर होने वाले जयपुर स्थापना दिवस के आयोजन से कई अफसरों और नेताओं की जेब गरम होने वाली है.इसलिए भी नहीं कि यह शहर कांग्रेसियों कि निगाह में राहुल गाँधी के सपनों का वर्ल्ड क्लास शहर बनने जा रहा है...और न ही इसलिए कि अगले महीने इस शहर के अलग -अलग हिस्सों को जोड़ने वाली महती योजना-मेट्रो रेल प्रोजेक्ट का प्रधान मंत्री डा० मनमोहन सिंह...कांग्रेस आलाकमान और यूपीए चेअर पर्सन श्रीमती सोनिया गाँधी या कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी में से कोई एक विधिवत शिलान्यास करेंगे.पूरे शहर के लिए इतराने जैसी बात यह भी नहीं है क्योंकि पूर्व जोधपुर राजपरिवार के नरेश गज सिंह के लाडले और मशहूर पोलो खिलाडी शिवराज सिंह राजसी अंदाज में इसी शहर के राजसी होटल में सात फेरों के साथ अपने वैवाहिक जीवन की नींव रखेंगे. खुशी और फ़ख्र करने की बात है तो यह कि स्थापना दिवस से एक दिन पहले एक और शहर के मुस्लिम भाई बकरीद की मुबारक बाद में उसी शिद्दत के साथ डूबे हुए थे ...जिस तरह गलता तीर्थ में कार्तिक एकादशी के मौके पर हिन्दू धर्मावलम्बी उसी आस्था के साथ डूबकी लगाकर खुद को खुश नसीब समझ रहे थे. इन 283 सालों में इस शहर में अगर फ़ख्र करने लायक कोई चीज बची है तो यह इस शहर की गंगा जमुनी संस्कृति ही है,जिस पर जितना इतराएँ कम है .
खूबसूरत गुलाबी नगर से चमा-चम वर्ल्ड क्लास सिटी बनने को आतुर इस शहर में आज भी सभी समुदाय एक दूसरे की भावनाओं का जितना सम्मान करते हैं,उतना शायद ही किसी जगह होता होगा.वसुधेव कुटुम्बकम के मूल मंत्र के साथ गुलाबी रंग में डूबे इस शहर ने इस बीच दंगों के घाव भी झेले और सीरियल ब्लास्ट की पीड़ा भी.लेकिन हर बार जीत हुई उसी "अपणायत" की ,जिसके लिए यह शहर जाना जाता है.न दंगों की साजिश रचने वाले इस शहर की शिरा-धमनी बने सभी मजहब के लोगों में दरार डाल पाये और न ही सीरियल ब्लास्ट की योजना बनाने वाले इस मंसूबें में कामयाब हो पाये कि शहर सहम जायेगा. जयपुर की जिन्दादिली ही इस शहर पर जान कुर्बान कर देने के लिए काफी है .शायद इसीलिए एक रूसी लेखक और सैलानी ने साठ के दशक में जयपुर की यात्रा से घर वापसी के बाद लिखा था -"मैंने जयपुर देख लिया है .अब मैं आराम से मर सकता हूँ." जयपुर को देख लेने वाले ही मृत्यु के आसानी से वरण करने की इच्छा का इजहार कर सकते हैं तो यकीन मानिये इस शहर को जीने वाले के लिए तो मौक्ष का द्वारा खुला ही हुआ है .
जयपुर में जीने और शान से जीने के लिए बहुत कुछ है .शहर की अब संकरी हो गयी गलियों में बसे लोगों का दिल इतना बड़ा है कि पूरा जहाँ भी उनके दिल में बसने के लिए छोटा पड़ जाये.लेकिन बात बदलते वक्त के साथ ज़िन्दगी में आ रहे बदलाव की हो, तो सोचने समझने और सरकारी मशीनरी ही नहीं, सबके लिए बदलाव की योजनाओं पर अमल के लिए काफी है .शहर की सिकुड़ती सडकों पर हादसे इस कदर फैले हैं कि सुबह का निकला शाम तक सकुशल घर नहीं लौट जाये तब तक एक डर हर किसी के दिल में समाये रहता है .चैन इस डर ने ही छीन लिया हो ऐसा नहीं,अल-सुबह से शाम तक बहन -बेटियों के गले की चैन किसी लूटेरे के हत्थे नहीं चढ़ जाये इस भय ने भी सुख चैन छीन सा लिया है .एक और कानून व्यवस्था के बिगड़ते हाल और उसे देखकर भी अपनी तोंद को सहलाती पुलिस की बेपरवाही डराती है .दूसरी तरफ आबो-हवा में दिन-दूना रात-चौगुना फैलता प्रदुषण भी चिंता का कम सबब नहीं है.पर्यावरण प्रदूषण की आये दिन स्टडी करने वाले विशेषज्ञ हों चाहे साग-तरकारी ,फल-फ्रूट पर केमिकल का असर जांचने वाले शोधार्थी...हर दिन ख़बरें आती हैं कि इन्हें खाना शरीर के लिए, नहीं खाने से भी खतरनाक हो सकता है .शहर के चर्चित मनो- चिकित्सक डा० शिव गौतम से बात करें, चाहे उन्ही की तरह चर्चा में रहने वाले डा० अनिल ताम्बी से लम्बी चौड़ी चर्चा...बातचीत में एक ही डर निकल कर रेतीले थार में बसने वाले "पीवणे सांप" की तरह सीने पर सवार हो जाता है कि कहीं हमारी आने वाली पीढी उसी तरह अवसाद की शिकार नहीं बन जाये ,जिस तरह नयी पीढी बेकारी -बेरोजगारी और भागमभाग में तनाव और ख़ुदकुशी का निवाला बन रही है. डर संयुक्त से एकल परिवार बनने के कारन लगातार आ रही उस गिरावट से भी लगता है ,जिसमें हर किसी को खुद से तो मतलब है लेकिन इस दुनिया और शहर में स्थान देने वाले मां- बाप से नहीं.शहर की यह ज़िन्दगी और खुशगावर बने इसके लिए जरूरी यही है कि हम हर हाल में इन्सान रहें ...जयपुर के वही नागरिक बने रहें,जिन्हें न किसी बुरा करने वाले को टोकने और ठोकने में दिक्कत होती थी और न किसी को सही राह दिखाने में झिझक होती थी .माँ बाप के लिए श्रवन कुमार भले ही हम न रह पा रहे हों ..लेकिन कम से कम इसे तो बने ही रहें की उन्हें अपने बच्चों को बेटा -बेटी कहने में शर्मा कतई नहीं आये.राजस्थान विश्व विद्यालय के समाज शास्त्री डाo राजीव गुप्ता जब कहते हैं कि -"अब बच्चों के लिए मां बाप उसी तरह उपयोगिता आधारित हो गए हैं ,जिस तरह कोई दुधारू गाय या फिर दहलीज पर चौकस बैठा रहने वाला कुत्ता" तो यकीन मानिये शहर छोड़ कर उसी गाँव में जाने कि तमन्ना हो जाती है .जिसमें सर्कार कि मेहरबानी से बिजली पानी का इंतजाम भले ही जयपुर से पांच फ़ीसदी भी नहीं हो.आदमियत तो अब भी बची है.