....हाशिये से.

कुछ मोती... कुछ शीप..!!!



Wednesday, November 17, 2010

ये शहर बहुत हसीं मगर ...!

जयपुर का 283 वां स्थापना दिवस सचमुच में इस छोटी काशी में बसे हर जयपुर वासी के लिए ख़ुशी का विषय है.सिर्फ इसलिए नहीं कि यह इस शहर की साल गिरह है..और इस मौके पर होने वाले जयपुर स्थापना दिवस के आयोजन से कई अफसरों और नेताओं की जेब गरम होने वाली है.इसलिए भी नहीं कि यह शहर कांग्रेसियों कि निगाह में राहुल गाँधी के सपनों का वर्ल्ड क्लास शहर बनने जा रहा है...और न ही इसलिए कि अगले महीने इस शहर के अलग -अलग हिस्सों को जोड़ने वाली महती योजना-मेट्रो रेल प्रोजेक्ट का प्रधान मंत्री डा० मनमोहन सिंह...कांग्रेस आलाकमान और यूपीए चेअर पर्सन श्रीमती सोनिया गाँधी या कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी में से कोई एक विधिवत शिलान्यास करेंगे.पूरे शहर के लिए इतराने जैसी बात यह भी नहीं है क्योंकि पूर्व जोधपुर राजपरिवार के नरेश गज सिंह के लाडले और मशहूर पोलो खिलाडी शिवराज सिंह राजसी अंदाज में इसी शहर के राजसी होटल में सात फेरों के साथ अपने वैवाहिक जीवन की नींव रखेंगे. खुशी और फ़ख्र करने की बात है तो यह कि स्थापना दिवस से एक दिन पहले एक और शहर के मुस्लिम भाई बकरीद की मुबारक बाद में उसी शिद्दत के साथ डूबे हुए थे ...जिस तरह गलता तीर्थ में कार्तिक एकादशी के मौके पर हिन्दू धर्मावलम्बी उसी आस्था के साथ डूबकी लगाकर खुद को खुश नसीब समझ रहे थे. इन 283 सालों में इस शहर में अगर फ़ख्र करने लायक कोई चीज बची है तो यह इस शहर की गंगा जमुनी संस्कृति ही है,जिस पर जितना इतराएँ कम है .
खूबसूरत गुलाबी नगर से चमा-चम वर्ल्ड क्लास सिटी बनने को आतुर इस शहर में आज भी सभी समुदाय एक दूसरे की भावनाओं का जितना सम्मान करते हैं,उतना शायद ही किसी जगह होता होगा.वसुधेव कुटुम्बकम के मूल मंत्र के साथ गुलाबी रंग में डूबे इस शहर ने इस बीच दंगों के घाव भी झेले और सीरियल ब्लास्ट की पीड़ा भी.लेकिन हर बार जीत हुई उसी "अपणायत" की ,जिसके लिए यह शहर जाना जाता है.न दंगों की साजिश रचने वाले इस शहर की शिरा-धमनी बने सभी मजहब के लोगों में दरार डाल पाये और न ही सीरियल ब्लास्ट की योजना बनाने वाले इस मंसूबें में कामयाब हो पाये कि शहर सहम जायेगा. जयपुर की जिन्दादिली ही इस शहर पर जान कुर्बान कर देने के लिए काफी है .शायद इसीलिए एक रूसी लेखक और सैलानी ने साठ के दशक में जयपुर की यात्रा से घर वापसी के बाद लिखा था -"मैंने जयपुर देख लिया है .अब मैं आराम से मर सकता हूँ." जयपुर को देख लेने वाले ही मृत्यु के आसानी से वरण करने की इच्छा का इजहार कर सकते हैं तो यकीन मानिये इस शहर को जीने वाले के लिए तो मौक्ष का द्वारा खुला ही हुआ है .
जयपुर में जीने और शान से जीने के लिए बहुत कुछ है .शहर की अब संकरी हो गयी गलियों में बसे लोगों का दिल इतना बड़ा है कि पूरा जहाँ भी उनके दिल में बसने के लिए छोटा पड़ जाये.लेकिन बात बदलते वक्त के साथ ज़िन्दगी में आ रहे बदलाव की हो, तो सोचने समझने और सरकारी मशीनरी ही नहीं, सबके लिए बदलाव की योजनाओं पर अमल के लिए काफी है .शहर की सिकुड़ती सडकों पर हादसे इस कदर फैले हैं कि सुबह का निकला शाम तक सकुशल घर नहीं लौट जाये तब तक एक डर हर किसी के दिल में समाये रहता है .चैन इस डर ने ही छीन लिया हो ऐसा नहीं,अल-सुबह से शाम तक बहन -बेटियों के गले की चैन किसी लूटेरे के हत्थे नहीं चढ़ जाये इस भय ने भी सुख चैन छीन सा लिया है .एक और कानून व्यवस्था के बिगड़ते हाल और उसे देखकर भी अपनी तोंद को सहलाती पुलिस की बेपरवाही डराती है .दूसरी तरफ आबो-हवा में दिन-दूना रात-चौगुना फैलता प्रदुषण भी चिंता का कम सबब नहीं है.पर्यावरण प्रदूषण की आये दिन स्टडी करने वाले विशेषज्ञ हों चाहे साग-तरकारी ,फल-फ्रूट पर केमिकल का असर जांचने वाले शोधार्थी...हर दिन ख़बरें आती हैं कि इन्हें खाना शरीर के लिए, नहीं खाने से भी खतरनाक हो सकता है .शहर के चर्चित मनो- चिकित्सक डा० शिव गौतम से बात करें, चाहे उन्ही की तरह चर्चा में रहने वाले डा० अनिल ताम्बी से लम्बी चौड़ी चर्चा...बातचीत में एक ही डर निकल कर रेतीले थार में बसने वाले "पीवणे सांप" की तरह सीने पर सवार हो जाता है कि कहीं हमारी आने वाली पीढी उसी तरह अवसाद की शिकार नहीं बन जाये ,जिस तरह नयी पीढी बेकारी -बेरोजगारी और भागमभाग में तनाव और ख़ुदकुशी का निवाला बन रही है. डर संयुक्त से एकल परिवार बनने के कारन लगातार आ रही उस गिरावट से भी लगता है ,जिसमें हर किसी को खुद से तो मतलब है लेकिन इस दुनिया और शहर में स्थान देने वाले मां- बाप से नहीं.शहर की यह ज़िन्दगी और खुशगावर बने इसके लिए जरूरी यही है कि हम हर हाल में इन्सान रहें ...जयपुर के वही नागरिक बने रहें,जिन्हें न किसी बुरा करने वाले को टोकने और ठोकने में दिक्कत होती थी और न किसी को सही राह दिखाने में झिझक होती थी .माँ बाप के लिए श्रवन कुमार भले ही हम न रह पा रहे हों ..लेकिन कम से कम इसे तो बने ही रहें की उन्हें अपने बच्चों को बेटा -बेटी कहने में शर्मा कतई नहीं आये.राजस्थान विश्व विद्यालय के समाज शास्त्री डाo राजीव गुप्ता जब कहते हैं कि -"अब बच्चों के लिए मां बाप उसी तरह उपयोगिता आधारित हो गए हैं ,जिस तरह कोई दुधारू गाय या फिर दहलीज पर चौकस बैठा रहने वाला कुत्ता" तो यकीन मानिये शहर छोड़ कर उसी गाँव में जाने कि तमन्ना हो जाती है .जिसमें सर्कार कि मेहरबानी से बिजली पानी का इंतजाम भले ही जयपुर से पांच फ़ीसदी भी नहीं हो.आदमियत तो अब भी बची है.




Thursday, July 29, 2010

भोपाल का गुमनाम मसीहा !!!


भोपाल गैस ञासदी पर अदालत का फैसला आया तो हर किसी ने एंडरसन से लेकर भोपाल के खलनायकों की जमकर खैर खबर ली.कोई भोपाल ञासदी के सबसे बडे खलनायक एंडरसन को भारत से भगाये जाने पर बैचैन नजर आया ,तो किसी को एंडरसन को भारत से सुरक्षित भगाने में शामिल रहे खलनायकों की तलाश थी .लेकिन उन नायकों की याद बहुत ही कम लोगों को आयी .जिन्‍होंने खुद को दांव पर लगाकर कईयों की जान बचायी .ऐसे ही नायक हैं,उस वक्‍त भोपाल के थ्री ईएमई सेंटर में तैनात रहे मेजर गुरचरण सिंह खनूजा.जो लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से सेना से सेवा मुक्‍त होने के बाद इन दिनों गुमनामी के अंधेरे में जी रहे हैं.खनूजा ने भोपाल गैस ञासदी में कोई बारह हजार लोगों की जान बचाई और उसी वक्‍त आंखों में हुई जलन ने धीरे धीरे उनकी आंखों की रोशनी छीन ली.

भारतीय सेना की इलेक्ट्रिक मैकेनिक इंजीनियरिंग सेवा से लेफ्टीनेंट कर्नल के पद से रिटायर गुरचरण सिंह खनूजा ने यह सब उस वक्‍त किया जब वे खुद गहरे सदमें में डूबे हुये थे. और यह सदमा था एक साथ घर के छह लोगों की मौत से जुडा हुआ.ये मौतें भी भोपाल गैस ञासदी की वजह से नहीं हुई.तत्‍कालीन प्रधानमंञी इंदिरा गांधी की हत्‍या के बाद भडके सिक्‍ख विरोधी दंगों में हुई. स्‍वर्णमंदिर में अपने परिवार की कुशलता की कामनाओं के साथ मत्‍था टेककर देवास मध्‍यप्रदेश स्थित अपने घर की ओर रवाना हुये उनके परिवार के छह जनों को हरियाणा के पास चलती हुई ट्रेन से उतारकर जिंदा जला दिया गया और मध्‍यप्रदेश के देवास में खनूजा के पिता की दुकानों को भी उसी तरह आग के हवाले कर दिया गया.
परिवार पर आयी इस विपदा से निपटने के लिये खनूजा दिल पर पत्‍थर ही रख रहे थे कि हादसे के महीने भर बाद 23 दिसंबर 1984 की वह मनहूस रात आ गयी. भोपाल के यूनियन कारबाइड कारखाने में हुई गैस रिसाव की घटना में हर कोई अपनी और अपने परिवार की खॅर मांगते हुये भोपाल से बाहर की तरफ भागने की जुगत में जुटा था.कोई यह सोचते हुये ही बेहोश होकर वहीं गिर गया...तो कोई आंखों में जलन के कारण अस्‍पताल में जा पहुंचा. अपने अधिकारी के आदेश पर एक सैनिक अधिकारी की तरह खनूजा पूरे जूनून के साथ लोगों की जान बचाने में जुट गये.खनूजा अपने इस काम में तब तक जुटे रहे जब तक कि खुद बेहोशी की हालत मे अस्‍पताल में भर्ती नहीं करा दिये गये.उस रात सेफ्टी वाल्‍व का रिसाव रोकने और लोगों को तुरंत अस्‍पताल पहुंचने में कितने लोगों की जान बची.यह भी खनूजा को तब पता चला...जब उनकी इस बहादुरी को बाद में अखबारों ने कवर किया.

''इट वाज फाइव पास्‍ट मिड नाइट'' इन भोपाल नामक पुस्‍तक में डोमिनिक लेपिरियर और जेवियर मोरो ने भोपाल ञासदी के इस रियल हीरो का कई बार जिक्र किया है .लेकिन पुस्‍तक के इन पन्‍नों से परे जिंदगी के पन्‍नों को पलटकर देखें तो इस जांबाज की जिंदगी में सेना और सैन्‍य कार्यों के लिये मिले तमगों के अलावा उपेक्षा ही उपेक्षा है.उपेक्षा भी ऐसी कि इस हीरों में अपना आदर्श तलाशते सैन्‍य अधिकारियों और आम नागरिकों के चेहरे पर सरकार को लेकर गुस्‍सा साफ उभर आता है . हालांकि इस जांबाज के चेहरे पर आज भी वही संतुष्टि का भाव है..जो उस वक्‍त हजारों लोगों की जान बचाते वक्‍त रहा होगा.71 वर्षीय खनूजा बारह हजार लोगों की जान बचाने का श्रेय खुद को नहीं अपने साथ गये उन छब्‍बीस जवानों को देते हैं.जो गाडियों में भर भर कर लोगों को गैस प्रभावित इलाकों से निकाल कर अस्‍पताल तक पहुचा रहे थे. इस बहादुरी भरे काम के लिये खनूजा उस वक्‍त थ्री ईएमई भोपाल के कमांडर रहे ब्रिगेडियर एमएनके नायर के शुक्रगुजार हैं.जिनके आदेश की बदौलत वे न सिर्फ मौके पर पहुंचे बल्कि पुराने भोपाल की करीब पंद्रह कॉलोनियों से हजारों की भीड को वहां से निकाल सके.यही नहीं खनूजा के सभी 26 साथी जवानों ने हजारों की तादाद में बुरी तरह प्रभावित लोगों को मिलिट्री और सिविल अस्‍पताल पहुंचाया.गैस रिसाव की घटना के तीन घण्‍टे बाद भी रिसाव जारी था और ज्‍योंही खनूजा को रिसाव वाले टैंकर्स की जानकारी मिली वे उस रिसाव को रोकने में जुट गये.खनूजा ने यह सब उस सूरत में किया जब भोपाल के उस वक्‍त एडीएम रहे तिवारी और दूसरे पुलिस प्रशासन कर्मी लोगों को निकालने की बजाय अपनी खैर मांग रहे थे.
भारतीय सेना के इस जांबाज अफसर के जेहन में वह हादसा आज भी फिल्‍मी रील की तरह घूमता है. इस हादसे के बाद पूरा परिवार जहां सांस की बीमारी की चपेट में आ गया.वहीं खुद खनूजा की आंखें भी पिगमेंट रेटिनल डिस्‍ट्रोफी के कारण लगातार रोशनी खोती जा रही है.उस गैस रिसाव के बाद फेफडे खराब हो गये हैं,सो अलग.लेकिन खनूजा को सरकारी दफतरों में जाकर मुआवजे या सम्‍मान की भीख मांगने की बजाय मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे में जाकर ईश्‍वर का आभार जताना अच्‍छा लगता है. ऐसा इसलिये क्‍योंकि उसी ने जिंदगी दी और उसी ने सेवा के अवसर.

1971 के भारत पाक युद्ध के दौरान पाकिस्‍तान की सरजमीं पर कब्‍जा कर लेने वाले भारतीय जांबाजों में एक गुरचरण सिंह खनूजा को उम्र के इस मोड पर अपनी उपेक्षा का कोई मलाल नहीं.मलाल है तो इस बात का कि सरकार ने यूनि‍यन कारबाइड के आगे घुटने ही नहीं टेके उस वक्‍त गिरफ्तार किये गये कारबाइड के कर्ता धर्ता एंडरसन को भी ससम्‍मान भारत से बाहर भेज दिया.और अब इस मुद्दे पर कांग्रेस सरकार को घेरने में जुटी बीजेपी भी केंद्र की सरकार में रहते हुये इस मामले में कुछ नहीं कर पायी.जयपुर के खातीपुरा इलाके में गुमनामी के भंवर में जिंदगी की नाव को जैसे तैसे बचा रहे खनूजा को राजनीति का यह रूप ही परेशान नहीं करता,यह पीडा भी सालती है कि उनके परिवार के छह जनों को जिंदा जला देने वालों को उनके किये की सजा क्‍यों नहीं मिली?क्‍या वजह है कि 1984 के सिक्‍ख विरोधी दंगों के शिकार आज भी न्‍याय के लिये तरस रहे हैं?


Saturday, May 22, 2010

अंध‍ियारे से रोशनी

टीआरपी की भागमभाग के इस दौर में टेलीविजन पर मानवीय संवेदनाओं से जुडी कहानियों को अब कम ही वक्‍त मिल पाता है.लेकिन मैं इस मामले में खुशनसीब हूं कि पहले सहारा समय में हाशिये पर जिंदगी जीते इंसानों पर स्‍टोरी करने का मौका मिलता रहा.और अब वॉयस ऑफ इंडिया के बाद सीएनईबी में भी राहुलदेवजी ऐसे ही काम के अवसर दे रहे हैं.बीते दिनों सीएनईबी के लिये खबर करते हुये एक ऐसे ही शख्‍स से मुलाकात हुई.जिसके काम की जितनी तारीफ की जाये, कम है. यकीन न हो तो आप भी गौर कर लीजिये इस कहानी पर.

आम तौर पर लोग हादसों से हताश हो जाते हैं लेकिन ऐसे लोगों की भी समाज में कोई कमी नहीं,जो हादसों से उबरकर सफलता की नयी इबारत ल‍िख डालते हैं.भरी जवानी में अपनी आंखों की रोशनी गंवा चुके एक शख्‍स ने भी ऐसी ही इबारत ल‍िख दी है.यह शख्‍स खुद अंधियारे में है लेकिन जूनून के साथ दूसरों की जिंदगी रोशन करने में जुटा हुआ है.दष्टिहीनों के लिये यह शख्‍स सफलता का स्‍ञोत है और दूसरे द्रष्टिहीनों के लिये बना है एक ऐसा मसीहा-जो उनके दर्द हर लेता है।

राजस्‍थान के पाली शहर से आये श्‍याम जायसवाल के जीवन में गजानंद अग्रवाल नाम का यह शख्‍स नहीं आता तो जिंदगी सचमुच बहुत ही मुश्किल बन जाती.पहले पब्लिक एडमिनिस्‍ट्रेशन में एमए तक की पढाई कर चुके श्‍याम जायसवाल की आंखों ने रेटिना डिटेचमेंट के चलते जवाब दे दिया फिर दो साल तक श्‍याम के अंधेपन को शर्मिंदगी का सबब मानते हुये घर वालों ने एक कमरे में कैद कर दिया. फिर लगा कि श्‍याम जायसवाल अब सिर्फ और सिर्फ बोझ बन गया है इसलिये परिजनों ने किसी भी तरह की मदद से इंकार कर घर से बाहर का रास्‍ता दिखा दिया। बेचारी मां बिलखती रही।जैसे तैसे अपनी अंटी में बचाये गये कुछ रूपये भी चोरी छिपे बेटे को दिये.लेकिन इतनी हिम्‍मत नहीं जुटा पायी कि बेटों और पति के फैसले के खिलाफ खडी हो सके.ऐसे में जिंदगी किसी फुटपाथ पर ही गुजरने के आसार बन गये थे लेकिन किसी भले मानुष ने श्‍याम जायसवाल को जयपुर में नैञहीनों के लिये प्रशिक्षण केंद्र चला रहे गजानंद अग्रवाल तक पहुंचा दिया.अब श्‍याम जायसवाल की अंधी आंखों में भी भविष्‍य के सपने तैरने लगे हैं.

अपनी सूनी आंखों में बेहतरी के सपने संजोने वालों में श्‍याम जायसवाल अकेले नहीं है. गजानंद अग्रवाल नाम के इस शख्‍स ने अब तक कोई दो सौ नैञहीनों की इसी तरह जिंदगी बदल दी है.और अग्रवाल के पास रहकर भविष्‍य संवारने में जुटे प्रवीण पांडेय और सुरेश जटिया के शब्‍दों में कहें तो नौजवानों को इस अंधियारे से निकलकर सफलता की राह दिखाने का उनका यह जूनून दिनों दिन रंग दिखा रहा है.नैञहीनों को जिंदगी के अंधियारों से सफलता का उजाला द‍िखाने की मुहिम में लगे गजानंद अग्रवाल की आंखों ने भी श्‍याम जायसवाल की तरह धोखा दे दिया था.लेकिन हताश होने की बजाय गजानंद अग्रवाल ने न सिर्फ खुद को भविष्‍य के लिये तैयार किया बल्कि बीते कई सालों में अपनी ही तरह के दूसरे नैञहीनों को भी सफलता की राह दिखा दी है.प्रतियोगी परीक्षाओं में द्रष्टिहीन द्रष्टिवानों से किसी भी तरह पिछड नहीं जायें इसी चिंता के चलते गजानंद अपने हॉस्‍टल में न केवल ऑडियो के जरिये द्रष्टिहीनों को पढा रहे हैं बल्कि ब्रेल लिपि से तैयार की गई सामान्‍य ज्ञान की पुस्तिका के सहारे तैयारी भी करा रहे हैं.

दिन भर की पढाई के बाद गोविंद कभी अपने नैञहीन शिष्‍यों को कम्‍प्‍यूटर का ज्ञान देने की कवायद करते हैं तो कभी संगीत की स्‍वरलहरियों के सहारे उनका तनाव हल्‍का करने की कोशिश करते हैं.गजानंद के लिये सफलता का फलसफा है तो सिर्फ एक-जो भी हालात हों,इंसान को सफलता का रास्‍ता तलाश कर जीवन को सुखद बना लेना चाहिये.और, इसी फलसफे को अपना मूल मंञ बनाकर गजानंद अग्रवाल अंधी आंखों में सफलता के सपने गढने में जुटे हुये है. द्रष्टिहीनों को सफलता की राह दिखाना आसान काम नहीं.लेकिन द्रष्टि बाधितों के लिये मसीहा बने गजानंद अग्रवाल ने इसे बेहद आसान कर दिया है.और यह भी बिना किसी सरकारी मदद के .खुद के बूते खडे होकर.
दसवीं में आंखों की रोशनी कम होती दिखायी दी. तब गजानंद का सपना था-डाक्‍टर बनकर लोगों की सेवा करना.लेकिन शनै शनै आंखों की रोशनी के चले जाने का दर्दनाक सच कुछ इस तरह सामने आया कि गजानंद ही नहीं परिवार के सभी लोग सन्‍न रह गये.लेकिन हालात के आगे हाथ खडे कर देने की बजाय गजानंद अग्रवाल ने फिजियो थैरेपी के जरिये लोगों की सेवा का रास्‍ता निकाल लिया.अहमदाबाद से फिजियो थैरेपी का कोर्स करने के बाद गजानंद अग्रवाल ने जयपुर में अपनी प्रेक्टिस शुरू की और यह प्रेक्टिस कुछ इस तरह चल निकली कि इलाज कराने वाले दूर दूर से आने लगे.इलाज कराने के लिये सीकर जिले के एक गांव से आने वाले विनोद सिंघल की मानें तो गजानंद के हाथों में सचमुच करिश्‍मा है.वे मरीजों के लिये दवा भी करते हैं और दुआ भी.
फिजियो थैरेपी के जरिये लोगों का इलाज कर अपनी आय का जरिया बनाने और बढाने के बाद गजानंद अग्रवाल ने हॉस्‍टल की शुरूआत की थी. जहां से अब तक करीब दो सौ नैञहीन प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सफलता की डगर पर आगे बढ गये हैं और लगातार मिली इस सफलता का असर ऐसा कि गजानंद अग्रवाल और उनकी पत्नि अनुराधा अग्रवाल इसी को जीवन का मकसद बना कर जुटे हुये हैं नर सेवा नारायण सेवा का संदेश देने में.गजानंद अग्रवाल की पत्नि अनुराधा अग्रवाल तो इस मुहिम में कुछ इस तरह का सुकून पा रही है कि एक साथ बीस बीस जनों का खाना बनाकर भी खुद को हर घडी ताजगी में डूबी हुई महसूस करती है और अपनापन ऐसा कि अनुराधा को परिवार के इन सदस्‍यों के बिना अब जिंदगी ही बेमानी नजर आने लगी है.

वर्ल्‍डक्‍लास सिटी बनने का सपना देख रही गुलाबीनगरी की एक अच्‍छी खासी आबादी हर शहर की तरह कच्‍ची बस्तियों में हाशिये पर जिंदगी जीती हैं लेकिन विश्‍वकर्मा इंडस्ट्रियल इलाके से सटी कच्‍ची बस्‍ती में रहकर नैञहीनों को सफलता की राह दिखा रहे गजानंद अग्रवाल ने एक अनूठी शुरूआत की है.इस शुरूआत का असर यह कि कोई दो सौ द्रष्टिहीन युवकों को नौकरी ही नहीं मिली.हालात से लडने का हौसला भी मिला है गजानंद अग्रवाल की इस मुहिम के जरिये.और हाशिये पर रहकर भी दूर तक का सपना देख रहे गजानंद के मन की मुराद है तो सिर्फ यही कि उनकी यह शुरूआत एक ऐसे अभियान का रंग ले ले.जो हर जरूरतमंद नैञहीन और न‍िशक्‍त की जिंदगी में रंग भर दे.

Friday, May 21, 2010

संघ के ये सिरफिरे

यह खबर अभी किसी अखबार या टीवी का हिस्‍सा तो नहीं बनी लेकिन राजस्‍थान एटीएस की अब तक की जांच को सही दिशा में मानें तो एक बात तय हो गयी है.और यह बात है अजमेर में सूफी संत ख्‍वाजा मोइनुद्दीन चिश्‍ती की दरगाह और हैदराबाद की मक्‍का मस्जिद में ब्‍लास्‍ट के पीछे उन्‍हीं सिरफिरों का हाथ है..जिन्‍होंने मालेगांव में बम धमाकों की योजना बनायी थी.यानीं आरएसएस प्रष्‍ठभूमि के पांच ऐसे युवकों ने ब्‍लास्‍ट की यह योजना बना ली.जो आरएसएस की विचारधारा से जुडे तो थे..हिंदू दर्शन को समझने और राष्‍ट्रीय सोच को आगे बढाने के लिये.लेकिन अमरनाथ याञियों और अक्षरधाम समेत अलग अलग जगह हूजी लश्‍कर ए तैयबा और इंडियन मुजाहिदीन द्वारा देश में जगह जगह की गई आतंकी वारदातों और ऐसे मामलों मे आरएसएस की चुप्‍पी के चलते खुद ही जवाबी कार्रवाई की सोच बैठे.अब तक मिले तथ्‍यों से यह बात साफ हो गयी है कि अजमेर मक्‍का मस्जिद और मालेगांव ब्‍लास्‍ट के पीछे पांच सिरफिरों का हाथ था.और आरएसएस को इसकी भनक तक नहीं मिली.
देश में जगह जगह हुई आतंकी हरकतों का जवाब देने निकले ये पांच सिरफिरे हैं..
1.अब तक पुलिस की पकड से बाहर सुनील डांगे
2.दिसंबर 2007 में इंदौर में मारा गया आरएसएस का जिला प्रचारक सुनील जोशी
3.पुलिस की पकड से दूर रामजी कलसांगरा
4.राजस्‍थान एटीएस द्वारा गिरफ्तार और अब सलाखों के पीछे न्‍यायिक हिरासत में बैठा देवेंद्र गुप्‍ता
और...
5.एक जून तक एटीएस की ओर से रिमांड पर लिया गया लोकेश शर्मा

एटीएस की अब तक की पूछताछ का लब्‍बो लुआब यही कि इन पांच जनों ने मिलकर ही ब्‍लास्‍ट की योजना बनायी और पेशे से इंजीनियर संदीप डांगे अजमेर...मक्‍का मस्जिद और मालेगांव धमाकों का असली मास्‍टर माइंड है.संदीप और रामजी कलसांगरा को बम बनाने की जिम्‍मेदारी दी गई तो सुनील जोशी का जिम्‍मा था बम निर्माण के लिये सामग्री जुटाना.लोकेश शर्मा ने मक्‍का मस्जिद ब्‍लास्‍ट के लिये कई बार हैदराबाद जाकर बाकायदा रैकी की थी और देवेंद्र जैन ने अजमेर दरगाह में ब्‍लास्‍ट का आईडिया दिया था.यह तैयारी भी 2003 से शुरू हुई और ज्‍यों ज्‍यों मुस्लिम आतंकी संगठनों ने जगह जगह वारदातें की...त्‍यौं त्‍यौं इन पांचों की योजना जूनून में बदल गयी.पकडे नहीं जायें..इसके लिये तमाम उपाय अपनाये गये.मसलन जून 2006 मे नकली वोटर आईडी और ड्राइविंग लाइसेंस के सहारे जामतारा झारखण्‍ड से सिम और मोबाइल खरीदे गये और संदीप डांगे योजना को अंजाम देने के लिये चुपचाप धन का इंतजाम करता रहा.तमाम सबूत पांचों के खिलाफ हैं.लेकिन अब तक पकडे गये आरोपियों के वकीलों की दलील इसे झुठलाने में जुटी है.सबसे बडी दलील यही कि जिस तरह अब तक आंध्र प्रदेश एटीएस मक्‍का मस्जिद मामले में हूजी का हाथ बताकर अपने गाल बजा रही थी..ठीक उसी तरह राजस्‍थान एटीएस की यह थ्‍यौरी भी झूठी नहीं पड जाये.हालांकि राजस्‍थान एटीएस का दावा है कि अजमेर ब्‍लास्‍ट हों चाहे मक्‍का मस्जिद या मालेगांव ब्‍लास्‍ट...इतने प्रमाण मिल गये हैं कि अब यह थ्‍यौरी गलत साबित होने वाली नहीं.

शेखावत होने का मतलब


भैरों सिंह शेखावत पूर्व उप राष्‍ट्रपति थे.तीन बार राजस्‍थान के मुखिया रहे पूर्व मुख्‍यमंञी थे. वे निर्विवाद जननायक थे.या पूर्व प्रधानमंञी अटल बिहारी वाजपेयी की भाषा में कहें तो एक ऐसे शख्‍स थे,जो मिट्टी से माथे का चंदन बन गये थे.लेकिन शेखावत को यहीं तक सीमित कर देना ठीक नहीं लगता . क्‍योंकि सही मायने में शेखावत सामाजिक बदलाव के एक बडे सूञधार थे.जिनकी असल सोच पुस्‍तक का रूप ले पाती तो शायद समाज ,राजनीति और व्‍यवस्‍था पर शोध करने वाले लोगों के लिये भी ज्‍यादा अच्‍छा होता..मुझे अच्‍छी तरह याद है...जब शेखावत उप राष्‍ट्रपति बनने के बाद जयपुर स्थित अपने आवास पर पहुंचे और टीवी के लिये इंटरव्‍यू लेकर रवाना होने के बाद दरवाजे से वापिस बुलाकर उन्‍होंने मुझे यह बताया कि वे उनके प्रेस सलाहकार के एल कोचर (अब दिवंगत ) के जरिये अपनी जीवनी ल‍िखवाने का मन बना रहे हैं...और उसके लिये मुझे भी दिल्‍ली आकर कोचर साहब का हाथ बंटाना होगा..मेरे लिये भी यह ऐसी शख्सियत को करीब से समझने का अवसर था.लेकिन इस मुद्दे पर फिर न कभी शेखावत की ओर से बात आयी ..और न ही मैं संकोचवश उनके उस प्रस्‍ताव पर बात कर पाया..लेकिन आज जब शेखावत सरीखा जननायक नहीं है तो लगता है,वह जीवनी कई ऐसे अनछुये पहलूओं को उजागर करती.,जिससे आप हम अनजान हैं.
दरअसल शेखावत सा‍माजिक बदलाव के ऐसे सूञधार थे जिन्‍होंने आम आदमी को हाशिये से उठाकर सत्‍ता का हिस्‍सा बनाया और राजसी यादों के नशे में चूर पूर्व राजाओं महाराजाओं को लोकतंञ की अहमियत का अहसास कराया..लोकतंञ में शेखावत देश के उप राष्‍ट्रपति बने लेकिन राजतंञ होता तो वे रियासतकालीन पुलिस के थानेदार तक ही सीमित रहते या फिर ज्‍यादा से ज्‍यादा उस इलाके की पुलिस के मुखिया बन जाते..लेकिन लोकतंञ ने शेखावत सरीखे शख्‍स के सामने संभावनाओं का ऐसा आसमान रख दिया था कि वे वोटों का गणित खिलाफ होने के बावजूद राष्‍ट्रपति का चुनाव तक लडने से नहीं हिचके..
इसे रियासतकालीन पुलिस में रहते हुये राजा महाराजाओं को समझने का असर मानें चाहे आजादी के बाद भी हुकुम बावजी जैसे सामंती संबोधनों के साथ पुरानी यादों को सहलाते और उसी नोस्‍टैलजिया में जीते राजा महाराजाओं के सोच को समझने के बाद उसमें सुधार करने का जूनून....कि शेखावत पूरी जिंदगी पूर्व राजघरानों को लोकतंञीय जरूरतों को समझने और उसके जरिये आगे बढने का सबक देते रहे. 1977 से पहले ही जागीरदारी प्रथा के उन्‍मूलन की बात पर शेखावत ने साफ कर दिया था कि वे लोकतांञिक मान मर्यादाओं के हामी हैं,लोकतंञ में सामंती सोच को आगे बढाने और उसका पोषक बनने के पक्षधर नहीं.
1977 में गुमान मल लोढा और सतीश चंद्र अग्रवाल सरीखे जनसंघ प्रष्‍ठभूमि के नेता मुख्‍यमंञी की दौड से पिछडे तो शेखावत मुख्‍यमंञी बने थे...और यह सच बहुत कम लोग जानते होंगे कि ऐसा जनतापार्टी में मौजूद स्‍वतंञ पार्टी धडे के व‍िधायकों की वजह से संभव हुआ. जयपुर के डिग्‍गी हाउस में हुई स्‍वतंञ पार्टी धडे की मीटिंग में शेखावत की ताजपोशी का रास्‍ता तय हुआ था.राजगोपालाचारी की स्‍वतंञ पार्टी के टिकिट पर जीते लगभग सभी विधायक राजपूत थे और ज्‍यादातर की प्रष्‍ठभूमि सामंती परिवेश की थी.लेकिन केंद्र की चंद्रशेखर सरकार मे उर्जा मंञी रहे कल्‍याण सिंह कालवी ने उस वक्‍त नारायण सिंह डिग्‍गी सरीखे स्‍वतंञ पार्टी के नेताओं ने जनसंघ धडे का मुख्‍यमंञी बनाने की सूरत में सिर्फ और सिर्फ शेखावत को ही स्‍वीकारने की ऐसी शर्त लगायी कि शेखावत गुमान मल लोढा और सतीश चंद्र अग्रवाल नेताओं को पीछे छोड.ते हुये राजस्‍थान के पहले गैर कांग्रेसी मुख्‍यमंञी बने. झालावाड के पूर्व राजपरिवार के महाराजा हरिश्‍चंद्र की जगह आम राजपूत शेखावत की पैरवी करने वाले कल्‍याण सिंह कालवी के लिये उस घटना के बाद ही पूर्व राजमाता गायञी देवी के दरवाजे हमेशा के लिये बंद हो गये.
झालावाड के राजा हरिश्‍चंद्र को मुख्‍यमंञी बनाने की मुहिम में जुटी गायञी देवी की सोच के खिलाफ कालवी ने एक आम आदमी को मुख्‍यमंञी बनाने का प्रस्‍ताव क्‍या रखा.जनसंघ को भी अपनी रणनीति बदलकर शेखावत को स्‍वीकार करना पडा . राजा महाराजाओं के लिये उस वक्‍त किसी ऐसे व्‍यक्ति जो बतौर थानेदार उनकी चाकरी में रहा हो...को राजस्‍थान सरीखे प्रदेश की सत्‍ता की कुंजी दे देना खटकने वाली बात थी.लेकिन शेखावत ने कालवी और दूसरे नेताओं के जरिये ऐसी राजनीति चली कि खास पर आम आदमी भारी पड गया.
जागीरदारी उन्‍मूलन के मुद्दे पर पहले ही अपनी प्रोग्रसिव सोच को सामने रख चुके शेखावत का मुख्‍यमंञी बनना निश्‍चय ही सामंती प्रष्‍ठभूमि वाले राजस्‍थान के लिये एक बडी घटना थी.बावजूद इसके शेखावत मुख्‍यमंञी बने और थोडे दिन बाद उन्‍हीं गायञी देवी को वे आरटीडीसी की चैयरमेन बनाने के लिये राजी करने में सफल रहे,जिनके दरवाजे शेखावत सरीखे नेताओं के लिये पहले बमुश्किल ही खुला करते थे..
शेखावत ने गायञी देवी सरीखी राजसी शख्सियत को ही लोकतांञिक सबक स‍िखाया हो ऐसा नहीं . जोधपुर के पूर्व नरेश गज सिंह को आरटीडीसी चैयरमेन बनाने , उदयपुर के पूर्व महाराणा महेंद्र सिंह. , अलवर की पूर्व महारानी महेंद्र कुमारी को लोकसभा चुनावों में बीजेपी का उम्‍मीदवार बनने के लिये तैयार करने और उनके ग्‍लैमर के साथ साथ गांव गांव में पार्टी का झंडा पहुंचाने वाले भी शेखावत ही थे.दरअसल शेखावत ने अपने राजनीतिक जीवन में एक ऐसे सोश्यिल इंजीनियर की भूमिका न‍िभायी जो पूर्व राजा महाराजाओं को लोकतंञ की खूबियों का अहसास कराने में तो कामयाब रहे ही, राजसी ग्‍लैमर के सहारे उन्‍होंने तब तक शहरी पार्टी कही जाने वाली बीजेपी का झंडा भी गांव गांव तक पहुंचा दिया . यह शेखावत सरीखे नेता के ही बूते की बात थी कि वे न केवल राजपाट छिन जाने का अब तक स्‍यापा मनाते रहे राजा महाराजाओं को महलों से निकाल कर जनता के बीच ले गये बल्कि कभी उनकी रियाया रही उसी जनता के सामने उन्‍हें वोटों के लिये हाथ जोडने का सबक भी सिखा दिया . इससे पहले 1952 के चुनाव में राम राज्‍य पर‍िषद जैसे दलों के सहारे राजा महाराजाओं ने चुनाव लडे थे . लेकिन उस वक्‍त न जनता को वोट की अहमियत का अहसास था और न ही उनके वोटों के सहारे चुनाव जीते राजा महाराजाओं को. वक्‍त बदला तो शेखावत ने अपने सोच के बूते बीजेपी का चुनाव चिन्‍ह घर घर पहुंचाने और लोकतांञिक ताकत का अहसास कराने के लिये 1989 के चुनाव में कई राजपरिवारों को चुनावी मैदान में उतार दिया . यही नहीं राजपरिवारों को शेखावत ने मौजूदा दौर के साथ चलने का सबक देते हुये हैरिटेज होटल्‍स का एक ऐसा नुस्‍खा भी थमा दिया. जो अब न केवल उनकी आजीविका से जुड गया है बल्कि राजस्‍थान के पर्यटन उद्योग को भी अब बडी ताकत भी दे रहा है..
राजपूत राजनीति के जानकारों की बात मानें तो भारतीय राजनीति में या तो शेखावत ने राजा महाराजाओं के सोच से बाहर निकल कर आम आदमी को सत्‍ता का सच समझाया. या फिर पूर्व प्रधानमंञी चंद्रशेखर ने.कुछ लोगों की निगाह में सामंती सोच से निकालकर आम राजपूत को लोकतंञ की मर्यादाओं का पाठ पढाने की यह मुहिम एक सेडिस्‍ट प्‍लैजर का हिस्‍सा थी.जिसमें या तो राजा मांडा विश्‍वनाथ प्रताप सिंह सरीखे नेता कभी चंद्रशेखर के तैवरों के आगे चित्‍त नजर आये..या फिर जोधपुर के गज सिंह , जयपुर की गायञी देवी बतौर आरटीडीसी चैयरमेन सरकारी मशीनरी का हिस्‍सा बनी.शेखावत ने दोनों शख्सियतों को राजस्‍थान में पर्यटन विस्‍तार का जिम्‍मा दे जहां तैतीस साल पहले ही इस दूरदर्शी सोच का अहसास करा दिया कि राजस्‍थान में पर्यटन की अकूत संभावनायें हैं.वहीं यह भी जता दिया कि लोकतांञिक ढांचे में सबके लिये समान अवसर हैं.चाहे वह राजा हो या रंक.कई चुनावी सभाओं में शेखावत एक बात जरूर कहा करते. थे कि "लोकतंञ में राजा रानी के पेट से नहीं,मतपेटियों से पैदा होता है”...और इसी बात को शेखावत ने राजस्‍थान के अलग अलग हिस्‍सों से चुनाव लडकर कुछ इस तरह साबित किया कि आजादी से पहले तक उनके आका बने राजा महाराजा भी उनके सामने नत मस्‍तक नजर आये.क्‍या यह राजसी सोच में पले बढे लोगों को आम आदमी का दिया सबक नहीं था ?