भैरों सिंह शेखावत पूर्व उप राष्ट्रपति थे.तीन बार राजस्थान के मुखिया रहे पूर्व मुख्यमंञी थे. वे निर्विवाद जननायक थे.या पूर्व प्रधानमंञी अटल बिहारी वाजपेयी की भाषा में कहें तो एक ऐसे शख्स थे,जो मिट्टी से माथे का चंदन बन गये थे.लेकिन शेखावत को यहीं तक सीमित कर देना ठीक नहीं लगता . क्योंकि सही मायने में शेखावत सामाजिक बदलाव के एक बडे सूञधार थे.जिनकी असल सोच पुस्तक का रूप ले पाती तो शायद समाज ,राजनीति और व्यवस्था पर शोध करने वाले लोगों के लिये भी ज्यादा अच्छा होता..मुझे अच्छी तरह याद है...जब शेखावत उप राष्ट्रपति बनने के बाद जयपुर स्थित अपने आवास पर पहुंचे और टीवी के लिये इंटरव्यू लेकर रवाना होने के बाद दरवाजे से वापिस बुलाकर उन्होंने मुझे यह बताया कि वे उनके प्रेस सलाहकार के एल कोचर (अब दिवंगत ) के जरिये अपनी जीवनी लिखवाने का मन बना रहे हैं...और उसके लिये मुझे भी दिल्ली आकर कोचर साहब का हाथ बंटाना होगा..मेरे लिये भी यह ऐसी शख्सियत को करीब से समझने का अवसर था.लेकिन इस मुद्दे पर फिर न कभी शेखावत की ओर से बात आयी ..और न ही मैं संकोचवश उनके उस प्रस्ताव पर बात कर पाया..लेकिन आज जब शेखावत सरीखा जननायक नहीं है तो लगता है,वह जीवनी कई ऐसे अनछुये पहलूओं को उजागर करती.,जिससे आप हम अनजान हैं.
दरअसल शेखावत सामाजिक बदलाव के ऐसे सूञधार थे जिन्होंने आम आदमी को हाशिये से उठाकर सत्ता का हिस्सा बनाया और राजसी यादों के नशे में चूर पूर्व राजाओं महाराजाओं को लोकतंञ की अहमियत का अहसास कराया..लोकतंञ में शेखावत देश के उप राष्ट्रपति बने लेकिन राजतंञ होता तो वे रियासतकालीन पुलिस के थानेदार तक ही सीमित रहते या फिर ज्यादा से ज्यादा उस इलाके की पुलिस के मुखिया बन जाते..लेकिन लोकतंञ ने शेखावत सरीखे शख्स के सामने संभावनाओं का ऐसा आसमान रख दिया था कि वे वोटों का गणित खिलाफ होने के बावजूद राष्ट्रपति का चुनाव तक लडने से नहीं हिचके..
इसे रियासतकालीन पुलिस में रहते हुये राजा महाराजाओं को समझने का असर मानें चाहे आजादी के बाद भी हुकुम बावजी जैसे सामंती संबोधनों के साथ पुरानी यादों को सहलाते और उसी नोस्टैलजिया में जीते राजा महाराजाओं के सोच को समझने के बाद उसमें सुधार करने का जूनून....कि शेखावत पूरी जिंदगी पूर्व राजघरानों को लोकतंञीय जरूरतों को समझने और उसके जरिये आगे बढने का सबक देते रहे. 1977 से पहले ही जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन की बात पर शेखावत ने साफ कर दिया था कि वे लोकतांञिक मान मर्यादाओं के हामी हैं,लोकतंञ में सामंती सोच को आगे बढाने और उसका पोषक बनने के पक्षधर नहीं.
1977 में गुमान मल लोढा और सतीश चंद्र अग्रवाल सरीखे जनसंघ प्रष्ठभूमि के नेता मुख्यमंञी की दौड से पिछडे तो शेखावत मुख्यमंञी बने थे...और यह सच बहुत कम लोग जानते होंगे कि ऐसा जनतापार्टी में मौजूद स्वतंञ पार्टी धडे के विधायकों की वजह से संभव हुआ. जयपुर के डिग्गी हाउस में हुई स्वतंञ पार्टी धडे की मीटिंग में शेखावत की ताजपोशी का रास्ता तय हुआ था.राजगोपालाचारी की स्वतंञ पार्टी के टिकिट पर जीते लगभग सभी विधायक राजपूत थे और ज्यादातर की प्रष्ठभूमि सामंती परिवेश की थी.लेकिन केंद्र की चंद्रशेखर सरकार मे उर्जा मंञी रहे कल्याण सिंह कालवी ने उस वक्त नारायण सिंह डिग्गी सरीखे स्वतंञ पार्टी के नेताओं ने जनसंघ धडे का मुख्यमंञी बनाने की सूरत में सिर्फ और सिर्फ शेखावत को ही स्वीकारने की ऐसी शर्त लगायी कि शेखावत गुमान मल लोढा और सतीश चंद्र अग्रवाल नेताओं को पीछे छोड.ते हुये राजस्थान के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंञी बने. झालावाड के पूर्व राजपरिवार के महाराजा हरिश्चंद्र की जगह आम राजपूत शेखावत की पैरवी करने वाले कल्याण सिंह कालवी के लिये उस घटना के बाद ही पूर्व राजमाता गायञी देवी के दरवाजे हमेशा के लिये बंद हो गये.
झालावाड के राजा हरिश्चंद्र को मुख्यमंञी बनाने की मुहिम में जुटी गायञी देवी की सोच के खिलाफ कालवी ने एक आम आदमी को मुख्यमंञी बनाने का प्रस्ताव क्या रखा.जनसंघ को भी अपनी रणनीति बदलकर शेखावत को स्वीकार करना पडा . राजा महाराजाओं के लिये उस वक्त किसी ऐसे व्यक्ति जो बतौर थानेदार उनकी चाकरी में रहा हो...को राजस्थान सरीखे प्रदेश की सत्ता की कुंजी दे देना खटकने वाली बात थी.लेकिन शेखावत ने कालवी और दूसरे नेताओं के जरिये ऐसी राजनीति चली कि खास पर आम आदमी भारी पड गया.
जागीरदारी उन्मूलन के मुद्दे पर पहले ही अपनी प्रोग्रसिव सोच को सामने रख चुके शेखावत का मुख्यमंञी बनना निश्चय ही सामंती प्रष्ठभूमि वाले राजस्थान के लिये एक बडी घटना थी.बावजूद इसके शेखावत मुख्यमंञी बने और थोडे दिन बाद उन्हीं गायञी देवी को वे आरटीडीसी की चैयरमेन बनाने के लिये राजी करने में सफल रहे,जिनके दरवाजे शेखावत सरीखे नेताओं के लिये पहले बमुश्किल ही खुला करते थे..
शेखावत ने गायञी देवी सरीखी राजसी शख्सियत को ही लोकतांञिक सबक सिखाया हो ऐसा नहीं . जोधपुर के पूर्व नरेश गज सिंह को आरटीडीसी चैयरमेन बनाने , उदयपुर के पूर्व महाराणा महेंद्र सिंह. , अलवर की पूर्व महारानी महेंद्र कुमारी को लोकसभा चुनावों में बीजेपी का उम्मीदवार बनने के लिये तैयार करने और उनके ग्लैमर के साथ साथ गांव गांव में पार्टी का झंडा पहुंचाने वाले भी शेखावत ही थे.दरअसल शेखावत ने अपने राजनीतिक जीवन में एक ऐसे सोश्यिल इंजीनियर की भूमिका निभायी जो पूर्व राजा महाराजाओं को लोकतंञ की खूबियों का अहसास कराने में तो कामयाब रहे ही, राजसी ग्लैमर के सहारे उन्होंने तब तक शहरी पार्टी कही जाने वाली बीजेपी का झंडा भी गांव गांव तक पहुंचा दिया . यह शेखावत सरीखे नेता के ही बूते की बात थी कि वे न केवल राजपाट छिन जाने का अब तक स्यापा मनाते रहे राजा महाराजाओं को महलों से निकाल कर जनता के बीच ले गये बल्कि कभी उनकी रियाया रही उसी जनता के सामने उन्हें वोटों के लिये हाथ जोडने का सबक भी सिखा दिया . इससे पहले 1952 के चुनाव में राम राज्य परिषद जैसे दलों के सहारे राजा महाराजाओं ने चुनाव लडे थे . लेकिन उस वक्त न जनता को वोट की अहमियत का अहसास था और न ही उनके वोटों के सहारे चुनाव जीते राजा महाराजाओं को. वक्त बदला तो शेखावत ने अपने सोच के बूते बीजेपी का चुनाव चिन्ह घर घर पहुंचाने और लोकतांञिक ताकत का अहसास कराने के लिये 1989 के चुनाव में कई राजपरिवारों को चुनावी मैदान में उतार दिया . यही नहीं राजपरिवारों को शेखावत ने मौजूदा दौर के साथ चलने का सबक देते हुये हैरिटेज होटल्स का एक ऐसा नुस्खा भी थमा दिया. जो अब न केवल उनकी आजीविका से जुड गया है बल्कि राजस्थान के पर्यटन उद्योग को भी अब बडी ताकत भी दे रहा है..
राजपूत राजनीति के जानकारों की बात मानें तो भारतीय राजनीति में या तो शेखावत ने राजा महाराजाओं के सोच से बाहर निकल कर आम आदमी को सत्ता का सच समझाया. या फिर पूर्व प्रधानमंञी चंद्रशेखर ने.कुछ लोगों की निगाह में सामंती सोच से निकालकर आम राजपूत को लोकतंञ की मर्यादाओं का पाठ पढाने की यह मुहिम एक सेडिस्ट प्लैजर का हिस्सा थी.जिसमें या तो राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंह सरीखे नेता कभी चंद्रशेखर के तैवरों के आगे चित्त नजर आये..या फिर जोधपुर के गज सिंह , जयपुर की गायञी देवी बतौर आरटीडीसी चैयरमेन सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनी.शेखावत ने दोनों शख्सियतों को राजस्थान में पर्यटन विस्तार का जिम्मा दे जहां तैतीस साल पहले ही इस दूरदर्शी सोच का अहसास करा दिया कि राजस्थान में पर्यटन की अकूत संभावनायें हैं.वहीं यह भी जता दिया कि लोकतांञिक ढांचे में सबके लिये समान अवसर हैं.चाहे वह राजा हो या रंक.कई चुनावी सभाओं में शेखावत एक बात जरूर कहा करते. थे कि "लोकतंञ में राजा रानी के पेट से नहीं,मतपेटियों से पैदा होता है”...और इसी बात को शेखावत ने राजस्थान के अलग अलग हिस्सों से चुनाव लडकर कुछ इस तरह साबित किया कि आजादी से पहले तक उनके आका बने राजा महाराजा भी उनके सामने नत मस्तक नजर आये.क्या यह राजसी सोच में पले बढे लोगों को आम आदमी का दिया सबक नहीं था ?
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