....हाशिये से.

कुछ मोती... कुछ शीप..!!!



Monday, July 13, 2015





तारीख़  ... !

फिर ,तारीख़ !!



रवाजे पर दस्तक के साथ ही खाकी  वर्दी में आने वाले उस सिपाही के चेहरे पर  भी हंसी के भाव होते हैं और मेरे चेहरे पर भी .वो अदालत का सम्मन थमाता ही है कि एक सवाल उधर घर के भीतर से पत्नी उछाल
देती है .इस बार कहाँ का है ? कब जाना है ? किस डॉक्टर का है ? मैं सवाल का जवाब देता उससे पहले ही इस बार सम्मन लेकर पहुंचे सिपाही ने खुद ही जवाब दे दिया -"कहीं और का नहीं . इस बार जयपुर की ही अदालत में जाना है ."
चमुच बीते सात आठ सालों में अदालत और अदालत से आने वाले सम्मनों से पूरे परिवार का ऐसा रिश्ता सा बन गया है कि कभी मोहल्ले तक में चर्चा का विषय बन जाने वाले सम्मन ज़िन्दगी का हिस्सा सा बन गए हैं .कन्या भ्रूण हत्या पर किये गए स्टिंग में यूँ तो गवाह  और भी हैं ,लेकिन सहारा टीवी नेटवर्क के उस वक़्त वाइस प्रेजीडेंट रहे ,उत्तराखंड के मौजूदा सूचना आयुक्त आदरणीय प्रभात डबराल ने स्टिंग से जुड़े मामलों में अदालत में हर बार पहुँच कानूनी लड़ाई को इस तरह मजबूती दे दी है कि आठ साल बाद भी कन्या भ्रूण हत्या के खुनी खेल के किरदारों को अदालत के सामने खड़ा करने में ज्यादा मुश्किल नहीं लगती .
स बीच कुल चार मामलों में सुनवाई पूरी हुयी है और दो डाक्टरों को सजा .बाकि करीब 79 डाक्टरों के मामले अभी अदालत में लंबित हैं .लिंग जांच और कन्या भ्रूण हत्या से जुड़े सभी मामलों को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत की दिलचस्पी और न्यायपालिका में कन्या भ्रूण हत्या के आँकड़ों से जुडी चिंता के बावजूद एक सच यह भी है कि इन मामलों में सरकार की तरफ से पैरवी करने वाले सरकारी वकीलों और पी सी पी एन डी टी कानून के तहत इन सभी मामलों को अदालत तक ले जाने वाले सी एम एच ओ की मामलों को कानून कि कसौटी पर कसने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं . ऐसे बिरले ही सरकारी नुमाईंदे होंगे ,जो चाहते हों कि डॉक्टर्स को उनकी कुत्सित सोच की कानून सजा मिले .
25 मार्च 2005 को इस स्टिंग की परिकल्पना की तब न तो डाक्टरों के इस तरह कन्या भ्रूण हत्या में शरीक होने ,हर साल साढ़े आठ लाख लड़कियों को माँ की कोख में निर्मम तरीके से मारने और हर साल करीब पांच हज़ार करोड़ रुपये कमाने का अंदाज़ था न ही एक गिरोह की तरह काम करती मशीनरी का .लेकिन स्टिंग के प्रसारण के साथ ही इस गिरोह के हर अंदाज़ ,उनके पीछे खड़े ताकतवर लोगों का पता चला तो लगा लड़ाई मुश्किल ही नहीं ,असंभव होगी .
लेकिन कुछ कुदरत की मांग थी ,कुछ जन आंदोलनों से लेकर फिल्म अभिनेता आमिर खान के "सत्यमेव जयते" से मिले हौसले तक का असर कि लड़ाई अब आसान सी लगती है .और वह भी तब जब स्टिंग को स्थापित करने के दायित्व से कुछ चहरे मुंह छिपा रहे हों और उम्र के इस मोड़ पर प्रभात डबराल जी सेंक्डों किलोमीटर का सफर कर थके हारे अदालत तक आ रहे हों .हालाँकि एक सवाल हर सम्मन के साथ बिन बुलाये मेहमान की  तरह आ ही जाता है कि चार मामलों को अदालत में अंतिम सुनवाई तक ले जाने में अगर आठ साल लग गए तो बाकि बचे 79 डाक्टरों के मामलों को अदालत में कानूनी अंजाम तक पहुँचने में कितना वक्त लगेगा  ? क्या तब हम शारीरिक रूप से ऐसी स्थिति में होंगे        कि अदालत में जाकर उन डाक्टरों के खिलाफ बयान और सबूत दे सकें ,जो बेटियों को माँ की कोख में ही ख़त्म करने के खुनी खेल में शामिल रहे हैं . क्या वह डाक्टर भी शारीरिक रूप से इतने सक्षम होंगे कि अदालत में उनके खिलाफ जारी लड़ाई में खुद का पक्ष रख सकें ?वाल भी  हैं औ सम्मनों के साथ हमारे चेहरे पर मुस्कराहट का प्रभाव  भी   ! शायद ज़िन्दगी के अंतिम मोड़ पर जाते हुए भी हम समाज से ,खासकर डाक्टरों से आग्रह कर सकें कि बेटियों को खुनी पंजों और उनकी लिंग जांच करने वाली तकनीक से बचाईये .                                                                                                                                                                                ...

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