....हाशिये से.

कुछ मोती... कुछ शीप..!!!



Saturday, July 25, 2015

बीस साल बाद  !

बीस साल का वक्त कम नहीं होता . बीस साल में सब कुछ बदल गया .देश ने नेहरू के समाजवाद से नरसिम्हाराव के उदारवाद से लेकर मोदी के कट्टरवाद तक कई बदलाव देख लिए . इस बीच वाजपेयी का शाइनिंग इण्डिया का नारा भी गूंजा तो मनमोहन का ग्लोबल सोच भी उभर कर बाजार में छा गया . देश बदला , दुनिया बदली . प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया होते हुए सोशल मीडिया तक का सफर भी तय हो गया . लेकिन आज एक ऐसे सख्श से फिर मुलाकात हो गयी ,जिससे अगस्त 1994  में एक चर्चित  समाजवादी  चिंतक मास्टर रामशरण अत्यनुप्रासी की वजह से मुलाकात हुई थी . मैं जयपुर और समाजवाद को समझने के लिए  लोहिया के शिष्य मास्टर रामशरण अत्यनुप्रासी जी के पास अक्सर जाता रहता . अगस्त के ही एक दिन मास्टरजी ने इस सख्श के बारे में कुछ इस तरह जिक्र किया कि उससे मिलने की  इच्छा प्रबल होती चली गयी .ये सख्श कोई और नहीं  ,यह सख्श थे  -डाक्टर सुनील गुप्ता . डाक्टर गुप्ता के बारे में पहला परिचय मास्टरजी ने कुछ इस तरह दिया था . तुम्हें धरती पर शैतान और भगवान एक ही जगह देखने  हो तो जयपुर के जे के लोन  अस्पताल चले जाओ . एक तरफ भगवान के रूप में सुनील गुप्ता होंगे , तो दूसरी और ठीक उनके सामने जो सख्श होंगे वो शैतान होंगे . एक ऐसा शैतान जो नन्हे मुन्ने बच्चों को हाई डोज़ दे रहा होगा . और एक ऐसा भगवान , जो फालतू में बच्चों को दवा न देने की सलाह दे रहा होगा .

बात कुछ इस तरह बताई गयी कि मैं मास्टरजी के घर से सीधे मिनी बस पकड़ कर जे के लोन पहुँच गया . अस्पताल में दोनों डाक्टर आमने सामने थे . डाक्टर सुनील गुप्ता के यहाँ कतार लम्बी लगी थी . किसी को बच्चों को फालतू दवा न देने की हिदायत तो किसी को अपने पास पड़े दवा के सेम्पल . एक बच्चे के पिता के पास तो शायद घर वापिस जाने के किराये का भी संकट था , सो उसने हक़ के साथ डाक्टर गुप्ता को बात बताई और डाक्टर गुप्ता ने जेब से बीस रुपये का नोट निकाल कर उसे  थमा  दिया . ये एक अलग अनुबव था ,जिसमे डाक्टर पर्ची पर बेवजह दवाओं की फेहरिश्त बनाने की बजाय नसीहत दे रहा था ,दवा एक सेम्पल में थमा रहा था और तीमारदार को किराया भी थमा रहा था .
कुछ दिन बाद फिर अस्पताल गया तो नजारा कमोबेश वैसा ही था .
जिज्ञासाएँ हिलौरे मार रही थी , सो बातचीत का सिलसिला चलता चला गया . पता चला पेशे से एलोपैथिक डाक्टर सुनील गुप्ता ने यूनानी और आयुर्वेदिक  दवाओं के सहारे चिकित्सा विज्ञान में असंभव करार दिए गए - मेन्टल रिटार्डेशन यानि मंदबुद्धि का इलाज खोज लिया है . जे ई पार्क और के पार्क लिखित " प्रिवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन" के मुताबिक ऐसे किसी व्यक्ति का शारीरिक विकास तो संभव है लेकिन मानसिक विकास नहीं . आयुर्वेद और यूनान के सम्मिश्रण से ऐसे रोग का इलाज अपने आप में बड़ी खबर थी ,सो मैं उस वक्त की चर्चित हिंदी पाक्षिक "माया"( जहाँ संवाददाता के रूप  में सेवारत रहा ) में रिपोर्ट के सिलसिलिले में सक्रिय हो गया . मैं रिपोर्ट को लेकर उत्साहित था लेकिन हमारे ब्यूरो प्रमुख ओम सैनी जी ऐसी किसी रिपोर्ट को बिना वैज्ञानिक आधार के  प्रकाशित करने के पक्ष में नहीं थे .
मुझे लग रहा था कि यह एक रिपोर्ट कई ऐसे रोगियों को राहत की राह दिखा सकती है . लिहाजा मैं डाक्टर सुनील गुप्ता के सभी दस्तावेजों को एकत्र करने और उनके चिकित्सकीय आधार तैयार करने में जुट गया . इस बीच पाकिस्तान तक के लोग अपने विमंदित बच्चों के इलाज के लिए आने लगे थे .खैर महीने भर की मशक्कत के बाद रिपोर्ट फाइल हुई और 31  अक्टूबर 1994 के अंक में  रिपोर्ट प्रकाशित हो गयी . रिपोर्ट के बाद कई परिजनों ने डाक के जरिये डाक्टर गुप्ता का अता पता लिया और सुधार के बाद धन्यवाद के पत्र भी आने लगे .

डाक्टर सुनील गुप्ता की यश कीर्ति भी फ़ैल रही थी और मरीजों की कतार भी अस्पताल में बढ़ती जा रही थी . सामने बैठने वाले महाशय के लिए इसे पचाना मुश्किल था लिहाजा जातीय गणित और राजनैतिक रसूख के बूते वह खुद अस्पताल में काबिज रहे और डाक्टर गुप्ता को जयपुर से बाहर टोंक जिले के निवाई में स्थानांतरित कर दिया गया . कुछ दिन की मायूसी के बाद  डाक्टर गुप्ता एक बार फिर नए मिशन में जुट गए . वहां आने वाले हर मरीज की मुड़ी हुई हड्डियों और बच्चों के खाएब होते दांत इस सख्श के लिए नए मिशन का जरिया बन गए . दोहरे होते शरीर और वक्त से पहले गिरते या पीले पड़ते दांत को देख यह अंदाज़ सहज था कि वनस्थली और आसपास के इलाकों के पानी में फ्लोराइड की तय सीमा से कई गुना मात्रा इलाके को फ्लोराइड का शिकार बना रही है . गुप्ता ने औने पौने दाम वाले फिल्टर प्लांट तैयार किये और सरकार को इलाके में इन्हे लगाने की गुजारिश कर दी . सरकार में प्रभावी तत्कालीन काबीना मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी को यह खोज पसंद आई और डाक्टर गुप्ता को निवाई से लाकर फ्लोराइड नियंत्रण के काम में भूमिका दे दी गयी . लेकिन सरकारी मशीनरी सस्ते उपाय के पक्ष में नहीं थी ,लिहाजा तरीके से फिर गुप्ता को अलवर जिले से सटे एक कस्बे में स्थानंतरित  कर दिया गया . गुप्ता के लिए यह मनोबल तोड़ने की कोशिश से कम नहीं था ,लिहाजा वो सरकारी नौकरी से अलग हो अपने शोध कार्य में जुट गए . 
एक और शतावरी ,शंख पुष्पी और ब्राह्मी जैसी जड़ी बूटियों से तैयार दवा और यूनानी तेल की मालिश से सेरिब्रल डिस्ट्रॉफी और स्पाइनल मास्कूलर जैसी बीमारियों के इलाज का सिलसिला जारी था ,दूसरी तरफ पेटेंट की लड़ाई भी चल रही थी . पेटेंट के लिए जंग में कुछ बिंदु ऐसे थे ,जिनका खुलासा करना डाक्टर गुप्ता को मंजूर नहीं था लिहाजा लड़ाई चलाती रही . इस बीच देश के कई नामी गिरामी अखबारों ने गुप्ता की इस खोज पर खबरें की तो बड़ी कम्पनियाँ एक मुश्त रकम देकर फार्मूला खरीदने के प्रस्ताव लेकर आने लगी .गुप्ता फार्मूला बेचकर सस्ती दवाओं के महंगे व्यापर के पक्ष में नहीं थे ,लिहाजा बात नहीं बनी .

इस दौरान मुलाकात का यह सिलसिला  व्यस्तताओं के बीच न के बराबर सा हो गया .बीस साल बाद एक बार फिर आज डाक्टर सुनील गुप्ता से लम्बी मुलाकात हुई है .और, इस मुलाकात में एक बार फिर डाक्टर गुप्ता एक नयी खोज का दावा कर रहे हैं .और, यह खोज है साईटिका और डिस्क प्रोलेप्स के उपचार की . यह उपचार आयुर्वेद और एलोपैथ का मिश्रण है . इतना ही नहीं आयुर्वेद के जरिये डाक्टर गुप्ता अल्झाइमर का भी इलाज खोजने में खुद के कामयाब होने का दावा कर रहे हैं . और, उन्हें वैज्ञानिक तौर पर स्थापित कर रहे हैं . गुप्ता के लिखे लेख मेडिकल जनरल्स में स्थान पर रहे हैं और वो उसी शिद्दत के साथ बीस साल बाद अपना धर्म निभा रहे हैं .
इन बीस सालों में उनके सामने बैठने वाला शिशु रोग विशेषज्ञ एक मेडिकल कालेज  समेत एक टी वी चैनल का मालिक बन चूका है ,और खुद गुप्ता एक छोटे से निजी अस्पताल के जरिये सेवा का दरिया बहाये जा रहे हैं . इस बीच धन न सही गुप्ता के खाते में सेंकडों ,हज़ारों लोगों की दुवाएं आई हैं   तो शैतान की तरह महंगी और हाई डोज दवाओं के जरिये धन अर्जित कर कालेज और चैनल के मालिक बने महाशय अपनी ही कालेज की छात्रों के देह शोषण के आरोप पुलिस मुकदमों के कारण विवादों में घिरते जा रहे हैं . गुप्ता के पास अकूत धन सम्पदा नहीं ,लेकिन ढेर सारा सुख चैन है .और कभी उनकी कुर्सी के सामने बैठ कर गुप्ता के मरीजों की कतार में खड़े बच्चों की गिनती करने वाले महाशय के पास अकूत धन दौलत है . कालेज है  , टी वी चैनल है लेकिन सुख -चैन नहीं .
बीस साल में गुप्ता के सिर के बाल जा चुके हैं  . बस बचा है तो जूनून और जज्बा . ठीक वैसा ही जैसा पहले था . इस बीच दवाओं के प्रयोग के खातिर ह्यूमन मॉडल न होने से खुद पर प्रयोग कर गुप्ता ने आँखों की दो बार रोशनी भी गंवाई लेकिन नियति गुप्ता के जरिये  जन कल्याण और चाहती है , लिहाजा रोशनी भी लौटी और प्रयोग का जज्बा भी बढ़ता चला गया . दवाएं किसी भी तरह के साइड इफेक्ट से मुक्त हों और दवाओं के बहाने पुराने विरोधी उन्हें घेरने में कामयाब न हों , इसलिए हर दवा का प्रभाव खुद पर जांचने वाले गुप्ता जैसे होनहार चिकित्सकों को हमारी सरकारी मशीनरी सिस्टम से बाहर जाने पर कैसे मजबूर करती है . ये सवाल तब भी था और अब भी . बीस साल बाद भी जवाब की तलाश जारी है .क्या आपके पास जवाब है  ?



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